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सलेस्साणं भंते ! जीवा पावं कम्म कहिं समजिणिंसु कहिं समायरिंसु एवं चेव, एवं कण्हलेस्सा जाव अलेस्सा, कण्हपक्खिया सुक्कपक्खिया, एवं जाव अणागारोवउत्ता ॥ २ ॥ जेरइयाणं भंते ! पावं कम्मं कहिं समजिणिंसु कहिं समायरिंसु ? गोयमा ! सम्बेवि ताव त्तिरिक्खजोणिएसु होज्जा, एवं चव अट्ट भंगा भाणियव्या ॥एवं सम्वत्थ अट्ठ भंगा जाव अणागारोवउत्तावि ॥ एवं जाव वेमाणिया॥ एवं णाणावरणिज्जेणवि दंडओ ॥ एवं जाव अंतराइ एएणं ॥ एवं एए जीवादीया वेमाणिय पजवसाणा व दंडगा भवंति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ जाव विहरइ ॥ अट्ठावीलइमं सयन्स पढमो
उद्देसो सम्मत्तो ॥ २८ ॥१॥ भावार्थभगवन् । सलशा
भगवन् ! सलेशी जीवोंने पापकर्म कहां कीये और कहां भे गवे ? अहो गौतम ! वैसे ही कहना. ऐसे ही कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल लेश्या, कृष्ण पक्षिक व शुक्ल पक्षिक ऐसे ही अनाकारोप योग युक्त पर्यंत कहना. १॥२॥ अहो भगवन् ! नारकीने पापकर्म कहां कीये कहां भोगवे ? सा तिर्यंच योनि में होवे यों आठ भांग कहना. यों अनाकारोप योगयुक्त पर्यंत आठ भांगे कहना. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना. ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय पर्यंत वैसे ही कहना. यों जीवदिक के वैमानिक पर्यंत नव दंडक होते हैं. अओ भगवन् । आमके वचनसत्य हैं योंकहकर यावत् विचन्नेलगे या अठावीवा शतकका पहिलाउद्देशा मंपूर्णहुआ.।२८ । नरक में नरकादिपने उत्पन्न होवे जिस से तिर्यंच गति में नरक गत्यादि हेतु भूत पापकर्म का उपाय कहा.
श्री अमोलक ऋषिजी ४ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि
प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादली