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॥ अष्टविसतितम शतकम् ॥ जीवाणं भंते ! पवं कम्मं कहिं समजिणिसु, कहिं समायरिंसु ? गोयमा ! झब्वेव तावं तिरिक्ख जोणिएसु होज्जा १, अहवा तिरिक्वजाणिएमु णेस्इएमय होज्जा, २अहवा तिरिक्खजोणिएमुम मणु समुय होजा; ३अहवातिरिक्ख जोणिएसुय देवेसुय होजा ४अहवा तिरिक्खजोणिएसय णेरइएसुय मणुस्सेसुय होजा५;अहवा तिरिक्खजोणिएसु
यणेरइएसुय देवेसुथ होज्जा ६, अहवा तिरिक्खजोणिएसुय मणुस्सेसुय देवेमुय होजा ७, भावार्थ
अहवा तिरिक्खजोणिएसुय गैरइयसुय मणुस्सेसुय देवेसुय होज्जा ८, ॥१॥ अब सत्तावीस वा शतक कहते हैं. इस शतक में भी अम्यारह उद्देशे उक्तद्वार से कहते हैं. अहो भगवन् ! जीने पापकर्म कौनसी गतिमें रहते हुवे कीया और कौनसी गति में भोगवा ? अहो गौतम ! सब ते पहिले * तिर्यंचगति में होवे क्यों की सब जीवों को मातृस्थान रूप तिच योनि हैं * अथवा २ तिर्यंच व नरक में E होवे ३ तिर्वच व मनुष्य में होवे ४ तिर्यंच देव में होबे, ५ तिर्यंच नरक व मनुष्य में होवे चिर्यच नरक व देव में हो ७ तिर्यंच मनुष्य व देव में होवे और ८ तिर्यंच नरक मनुष्य व देव में होवे ॥१॥
से एक विवक्षित समय में नरकादि होवे वे अल्प फ्ना से सब सिद्ध गति में अथवा तिर्यंचगति में बावे जिस + से अन्य गति जीव रहित होवे तब तिर्यच के अनंत पना से करके आनेर्लेपनीय पना से वे तिर्यच वहां से नीकले और
पंचमाङ्ग विवाह पण्णन्ति (भगवती) मूत्र +
8 अठावीसवा शतक का पहिला उद्देशा 42
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