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शब्दार्थ
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8 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी
वेदनीय क. कर्म जा० यावत् प० प्रयोगबंध ॥ ३१ ॥ मो० मोहनीय क. कर्म सशरीर पु० पृच्छा गो० ॥ गौतम ति तीव्र क्रोध से ति तीव्रमान से ति तीवमाया से तितीव लोभ से ति०. तीव्र दर्शन मोहनीय से ति तीव्र चारित्र मोहनीय क० कर्म स० शरीर प्रयोग जा. यावत् १० प्रयोग बंध ॥ ४० ॥ नेई नरकायुष्य क० कर्म शरीर प्रयोग बंध भ० भगवन् पु० पुच्छा गो. गौतम म. महा आरंभ से म. महा
सोयणयाए जहा सत्तमसए दुस्समा उद्देसए जाव परितावणयाए, असायावेयाणिज कम्मा जाव प्पओग बंधे ॥ ३९ ॥ मोहणिजकम्मा सरीर पुच्छा ! गोयमा ! तिबकोहयाए, तिव्वमाणयाए, तिव्वमाययाए, तिब्बलोहयाए, तिव्वदंसणमोहणिजयाए, तिब्वचरित्तमोहणिज्जयाए । मोहणिजकम्मासरीरप्पओग जाव प्पआगेबध ॥ ४० ॥
णेरइयाउयकम्मासरीरप्पओगबंधणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! महारंभयाए, महातापना देने से अमाता वेदनीय नाम कर्म से असाता वेदनीय कार्माण शरीर प्रयोग बंध होता है ॥३९॥ अब मोहनीय कर्म की पृच्छा करते हैं. अहो गौतम ! तीन क्रोध, तीव्र मान, तीव्र माया, तीव्र लोभ, तीव मिथ्यात्व मोहनीय सेव तीव्र कषाय लक्षण चारित्र मोहनीय से मोहनीय कार्माण शरीर प्रयोग नामक कर्म के उदय से मोहनीय कर्माण शरीर प्रयोग बंध होता है ॥ ४० ॥ नारकी के आयष्य कार्माण शरि प्रयोग बंध की पृच्छा. अहो गौतम ! अपरिमित कृष्यादि आरंभ से, अपरिमित परिग्रह से, पंचेन्द्रिय
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ