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शब्दार्थ)
सूत्र
भावार्थ
48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
[ के . गि० गृह से प8 जीकलकर सिंह मिंटिक ग्राम ण० नगर की म० बीच में से णि० नीकलकर ज० जैसे गो० गौतम स्वामी जा० यावत् भ० भक्तपान प० बतलाकर स० भ्रमण भ० भगवंत म० महावीर के पा हस्त में तं वह स सब णिः रखा ॥ १५६ ॥ त० तव स० श्रपण भ० भगवंत म० महावीर अ० अमूच्छित जा० यावत् अ० तन्मय रहित वि० बिल जैसे प० सर्पभूत अ स्वतःने त उस आ० आहार को (स० शरीर में प० डाला ॥ १५७ ॥ त० तव स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर को त उन आ० म२त्ता मिढियागामं णयरं मज्झमज्झणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता जहा गोयमसामी जाव भक्त्तपाणं पडिदंसेइ २त्तां समणस्स भगवओ महावीरस्स पाणिसि तं सव्वं सम्म सिर || १५६ ॥ तरणं समणे भगवं महावीरे अमुच्छिए जाव अणुज्झोववण्णे बिल विपण्णगभूएणं अप्पाणणं तमाहारं सरीरको टुंसि पक्खिवइ ॥ १५७ ॥
गाथापति की पत्निरेवती के गृह से नीकलकर मिडिया नगर की बीच में होते हुवे गौतम स्वामी की तरह भगवंत को भक्तपान बतलाया और श्रवण भगवंत श्रीमहावीर स्वामी के हस्त. ॥ १५६ ॥ जैसे बिल में सर्प प्रवेश करता है वैसे ही श्रमण भगवंत महावीरने
सब सम्यक प्रकार से रखा. मूर्च्छा व लुब्धता रहित
उस आहार को शरीर रूपं कोठे में डाला अर्थात् आहार किया ।। १५७ ॥ श्रग भगवंत महावीर स्वामी
*प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी #
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