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भंते ! अणंतरं उब्वहिता जे भविए पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए, सेणं भंते ! कयरं आउयं षडिसंवेदेइ ? गोयमा ! णेरइयाउधं पडिसंवेदेइ, पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाउएसे पुरओ कडे चिट्ठइ ॥ एवं मणुस्सेवि णवरं मणुस्साउए से पुरओ कडे चिट्ठइ ॥ ४ ॥ असुरकुमाराणं भंते ! अणंतरं उवाहित्ता जे भविए पुढवीकाइएसु उववजित्तए पुच्छा, गोयमा! असुरकुमाराउयं पडिसंवेदेइ, पुढवीकाइयाउए से पुरओ कडे चिट्ठइ ॥ एवं जो जहिं भवओ उववजित्तए तस्स तं पुरओ कडं चिटुंति तत्थविओ तं पडिसंवेदेइ जाव वेमाणिया णवरं पुढवीकाइयो पुढवी काइएसु उववज्जति पुढवीकाइयाउयं पडिसंवेदेइ अण्णेय से पुढवीकाइयाउए पुरओ
कडे चिट्ठइ एवं जाव भणुस्सो सट्ठाणे उववातेयव्वो परट्ठाणे तहेव ॥ ५॥ भावार्थ
भगवन् ! जो नारकी नरक में अंतर रहित नीकलकर तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होने योग्य होता है, वह कौनसा आयुष्य वेदता है? अहो गौतम! नारकी का आयुष्य वेदता है और तिर्यंच पंचेन्द्रिय का
आयुष्य आगे करके रहता है. ऐसे ही मनुष्य का जानना. वह आगे करके रहता है ॥ ४ ॥ अहो 4भगवन् ! असुरकुमार अंतर रहित नीकलकर पृथ्वीकाया में उत्पन्न होने योग्य होता है वह कौनसा
आयुष्य वेदता है? अहो गौतम ! असुरकुमार का आयुष्य वेदता है और पृथ्वी काया का आयुष्य आगे करके रहता है. ऐसे ही जो जहां उत्पन्न होने योग्य होता है वह वहां का आयुष्य आगे कर के
48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 408
अठारहवा शतक का पांचवा उद्देशा 488