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१.१ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी 4*
है पिं० पिंगलक निःनिग्रंथ वे० वैशालिक सा० सुननेवाला को किं किंचित प० उत्तर करन को तु०१ -तुष्णीक सं० रहे ॥ ८॥त. तब सा० सावत्थी न० नगरी से सिं० सिंघाडे जैसे जा. यावत् प० रस्ते
में म. महा पुरुषों सं० संमई ज. जन समुदाय प. परिषदा नि. गइ त० तब तक उस सं० खंदक है क०कात्यायन गोत्रीय बबत ज०मनुष्य की अं०पास स यह अर्थ सोसुनकर नि०अवधाकर इ०इसरूप अ०
भेदसमावन्ने, कलुससमावन्ने नोसंवाएइ पिंगलरस नियंठस्स वेसालिय सावयस्स किंचिवि पमोक्खमक्खाइओ तुसिणीए संचिट्ठइ ॥ ८ ॥ तएणं सावत्थीए नयरीए सिंघाडग जाव पहेसु महयाजण सम्मदेइवा, जण बृहेइवा, निग्गइछइ तएणं तरस खंदयस्स कच्चायणसगोत्तरस बहुजणस्स अंतिए एयमटुं सोच्चा निसम्म इमेएयारूवे अजथिए, चिंतिए, पच्छिए, मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था एवं खलु समणे भगवं महातीन बार वैसाही प्रश्न पूछा परंत कात्यायन गोत्रीय स्कंदक परित्राजक को शंका, कांक्षा, वितिगिच्छा, भेद व कालुप्यता प्राप्त होने से उनके प्रश का उत्तर नहीं दे सका और मौन रखजा रहा ॥ ८ ॥ उस समय श्रावस्ती नगरी के तीन रस्ते मीलने के स्थान, चौक यावत् वहत रस्ते मीलने के स्थान पर बहुत मनुष्यों के
मवाना करने का नीकली. और परस्पर ऐसा बोलने लगे की श्री श्रमण भगवन्त महावीर कयलगा नगरी के छत्रपालाश नामक उद्यान में पधारे है. ऐसा बहुत मनुष्यों की पाससे श्रवण करके *
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ
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