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शब्दार्थ क्या स० अंतसाहित लोक जा. यावत् के किस म मरण से म० मरता जी० जीव व० वृद्धिपामे हा०है |
१ हानिपामे ए० इतना आ० कहो बु० बोलता त० तद ते० वह ख० खंदक क• कात्यायन गोत्रीय पिं० पिंगलक निग्रंथ वे वैशालिक सा० सुननेवाला दोदो त तीन वक्त इव्यह अ शंकित के० कांक्षित वि० संदेहवाला भे भेद को प्राप्त क० कालुप्य वाला नो० नहीं सं० शक्तिमान
तएणं से पिंगलए नियंठे वेसालीसावए खंदयं कच्चायणसगोत्तं दोच्चंपि इणमक्खेवं पुच्छे मागहा! किं सतेलोए जाव केणवा मरणेणं मरमाणे जीवे वड्डइवा, हायइवा, एतावंताव आइक्खाहि वुच्चमाणो एवं तएणं तेखंदए कच्चायणसगोत्तं पिंगलएणं नियंठेणं
वेसालीसावएणं दोच्चंपि तच्चंपि इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए कंखिए वितिगिंछिए, भावार्थ जानने की कांक्षा, अन्य को उत्तर देने में प्रतीति होवे वैसी वितिगिच्छा उत्पन्न हुई. वैसे ही मैंने
इस का उत्तर नहीं जाना सो मतिभंग, भेद व मन में कालुष्यता हुई. वैसे ही वैसालिय श्रावक पिंगलक
अनगार के एक ही प्रश्नों का उत्तर देने को असमर्थ हुवा. और मौन खडा रहा. तब उन वैसालिय) 1 श्रावक पिंगलक निग्रंथने पुनःयही प्रश्न पूछा की अहो मागध ! अंत सहित लोक है यावत किस मरण
से संसार की वृद्धि होती है और किस मरणसे संसार का क्षय होता है ? इस तरह पिंगलक निर्मथने दो।
पंचङ्ग हिववपण्णात्ति ( भगवती ) सूत्र 8989
2082%80- दूसरा शतक का पहिला उद्देशा -3-882