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पस्णत्ति ( भगवती) मूत्र
जीवा काइयाए जाव चउहि किरियाहिं पुढें ॥ जेसि पियणं जीवाणं सरीरेहितो तलफले णियित्तिए नेविणं जीवा काइयाए जार पंचहि किरियाहिं पुट्ठा ५ जेवियसे जीवा अहे वो सार, पच्चोयमाणम्म उगहे वति, तेवियणं जीवा काइयाए जात्र पंचहिँ किरिया हि पुट्ठा ६ ; ॥ ६ ॥ पुरिसेणं भंते ! रुक्खस्स मूलं पव.लेमाणेवा पवाडेमाणेवा कइकिरिए ? गोपमा ! जांचणं से पुरेसे रुक्खरस मुलं पवालेइवा पवाडेइबा, ताबंचणं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे ॥ जेसिपियणं
जीवाणं सरीरहितो मूलं णिवत्तिए जाव बीए णित.त्तिए तेविणं जीवा काइयाए प्राणों की घात करता है वहांलग उन पुरुष को चार क्रियाओं कही हैं क्योंकी उस पुरुष के योग से उसकी घात नहीं हुई है. जिन जीवों के शरीर से ताल बना हुवा है उन जीवों को कायिकादि चार क्रियाओं लगती है. और जिन जी के शरीर से तालफल बना हुवा है उन जीवों को कायिकादि पांच क्रियाओं लगती हैं. और जो जीतनों स्वभाव में है। नी भात हैं उन नीनों को भी कायिकादि , पांच क्रियाओं लगती हैं ॥ ६ ॥ अहो भावस् ! कोई पुरुष वृक्ष के पूल को चलाता व नीचे डालता है कितनी क्रियाओं करे ? अहो गौतम : जहां लग या पुरुष वृत के मूल को चलाता व नीचे गिरावा
सत्तरहरा शतक का पहिला उद्देशा
भावार्थ
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