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शब्दार्थ
* अभिलाप से दं० दंडक जा. यावत् वे वैमानिक को ए. ऐसे क० करता है ए० इस का दं० दंडक
मा० यावत् वे० वैमानिक ए. ऐसे क० करेंगे ए. यह दं० दंडक जा. यावत् वे०. वैमानिक ए. ऐसे में के. किरे चि. इकठे किरे उ. विशेष इकठे किरे उ. उदीरे वे वेदे नि. निर्जरे आ० आर्दके ति०१ तीनके च चारभेद तिः तीनभेद ५० पीछेके ति० तीन के॥३॥ जी० जीव भं० भगवन् कं. कांक्षा मो-है
अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ४
उदीरेंसु, उदीरंति, उदीरिस्संति,वेदंसु, वेदति,वेदिस्संति । णिज्जरेंसु, णिज्जरेंति, णिजरिस्संति गाहा॥ कडे चिए य उवचिए,उदीरिया वेदियाय णिजिण्णाआदितिए चउभेया, तियभेया पच्छिमातिण्णि ॥ १ ॥ ३ ॥ जीवाणं भंते ! कंखा मोहणिजे कम्मं वेदेति ? हंता
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
आश्रित जीव कांक्षा मोहनीय कर्म करता है, और भविष्यकाल आश्रित जीव कांक्षा मोहनीय कर्म करेगा, वगैरह चौवीस दंडक में जानना. ऐसे ही.चिय, उपचिय, का सामान्य, भूत भविष्य व वर्तमान
काल आश्रित जानना. और उदीरणा, वेद व निर्जरा इन तीन बोल को भूत, भविष्य व वर्तमान काल Fआश्रित चौविस दंडक पर उतारना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! जीव कांक्षा मोहनीय कर्म वेदता है ? हां
जीव कांक्षा मोहनीय कर्म वंदता है. अहो भगवन ! किस तरह से जीव कांक्षा मोहनीय कर्मच विदता है ? अहो गौतम ! मिथ्यात्व की संगति से या परदर्शन के वचन श्रवण से श्री वीतराग प्ररूपित
गौतम ! जीव कांक्षा मोहनीय क