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शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ
+ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र
खं० खंदक अ० अनगार को अ० अन्यदा क० कदापि पु० पूर्व रात्रिके का० काल में घ० धर्म जा० जागरणा जा० करते इ० यह ए० ऐसा अ० अध्यवसाय चि० चिन्तवन जा० यावत् स० उत्पन्न हुवा ए० ऐसे ख० निश्चय अ० मैं इ० इस उ० उदार जा० यावत् कि० कृश घ० नाडियों की [सं० संतती जा० यावत् जी० जीव जी० जीव से ग० जाता हूँ चि० खडा रहता हूं जा० यावत् गि० हानि करता हूं जा० यात्रत ए० ऐसे अ० मैंभी स० शब्द सहित ग० जाता हूं चि० खडा रहता
तस्स खंदयस्स अणगारस्स अण्णया कयाइं पुव्वरतावर काल समयंसि धम्म जागरियं जागरमाणस्स इमेयारूत्रे अन्भतिथए चिंतिए जात्र समुप्पज्जेत्था, एवं खलु अहं इमेणं एवारूवेणं उरालेणं जाव किसे धमाणसंतए जाव जीवं जीवेणं गच्छामि जर्वि जीवेणं चिट्ठामि, जाव गिलामि. एवामेव अहंपि ससद्दगच्छामि, ससद्दचिटामि तं अत्थि तामे उट्ठाणे
सुनकर पीछी गइ ॥ २१ ॥ उस समय में एकदा मध्यरात्रि में धर्म जागरणा करते खंदक अनगार को ऐसा अध्यवसाय यावत् चितवन उत्पन्न हुवा कि ऐसा उदार व प्रधान तपकर्म से मैं कृश बन गया {मेरी सब नाड़ियों दीख रही है, शरीर से मुझे कुच्छ भी होता नहीं है, हलन चलनादि क्रियाओं जो } होती हैं वे सब जीव से होती है, यावत् भाषा बोलते भी मैं खेदित होता है, और काष्ट का गाडा याव
** दूसरा शतक का पहिला उद्देशा
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