________________
शब्दार्थ - लोक क देवलोक में दे० देवों की ठि० स्थिति जा० जानी पा० देखी ॥ १४ ॥ त० तब तक उस पॉ०१
- पद्गल प० परिव्राजक को अ० यह ए. ऐसा अ० अध्यवसाय स० उत्पन्न हुवा अ० है म० मुझे अ०
अतिशय ज्ञा० ज्ञान दं० दर्शन स० उत्पन्न हवा दे देवलोक में दे० देवोंकी ज० जघन्य द० दश हजार वर्ष १० मरूपी ते. उस से आगे स० समयाधिक द. दो समयाधिक जा. यावत् अं. असंख्यात स. इसमयाधिक उ० उत्कृष्ट द० दश सा० सागरोपम ठि! स्थिति प० प्ररूपी ते. उस से प० आगे वॉ०१ विच्छेद ६० देव दे० देवलोक ॥ १५ ॥ एक ऐसा सं०विचारकर आ० आतापना भू० भूमि मे ५०पीछा है अण्णाणेणं समुप्पण्णेणं बंभलोए कप्पे देवाणं ठिई जाणइ पासइ ॥ १४ ॥ तएणं
तस्स पोग्गलस्स परिवायगस्स अयमेयारूवे अब्भत्थिए जाव समप्पजित्था आत्थि___णं मम आतसेसे णाणदंसणे समप्पणे देवलोएसुणं देवाणं जहण्णेणं दसवास
सहस्साई ठिई पण्णत्ता तेणपरं समयाहिया दुसमयाहिया जाव असंखेजसमयाहिया,
उक्कोसणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता तेणपरं वोच्छिण्णा देवाय देव लोगाय भावार्थ
नामक अज्ञान से देवताओं की स्थिति वह जानने लगा ॥१४॥ अब उस पुद्गल परिव्राजक को ऐसा अध्य
वसाय उत्पन्न हुवा कि मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुवा है जिस से मैं जानता हूँ कि देवताओं की में " जघन्य दश हजार वर्ष की स्थिति है. इस में एक समय, दो समय यावत् संख्यात, असंख्यात समय * की वृद्धि करते उत्कृष्ट दश सागरोपम की स्थिति है. पीछे देवों की स्थिति का क्षय है ॥ १५ ॥ ऐमा
११ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी
wwwww
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *