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शब्दार्थ
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भावार्थ
पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 8803
१२० सरण गः गति प० रहे हुवे अ• अप्रतिहत व प्रधान ना. ज्ञान दर्शन ध० धरने वाले वि० निवृत्त ।
छ० छमस्थपने से जि. जिते जा. जितानेवाले ति तीरे ता० तारक बुलबुद बो० बुझावे मु० मुक्त मो० मुक्तकरे म० सर्वज्ञ स० सर्वदर्शी सि. शिव अ० अचल अ० रोगरहित अ० अनंत अ० अक्षय अ०है।
दंसणधरे, वियट छउमे जिणे, जावए, तिणे, तारए, बुढे, बोहिए, मुत्ते मायए, स
व्वण्ण सव्वदरिसी सिव, मयल. मरुअ. मणंत. मक्खय. मव्वाबाह, मपणरावत्तियं, चक्षु के दातार, मोक्ष मार्ग के दातार, विविध प्रकार के उपद्रव से पीडित, जीव को रक्षा स्थान-मोक्ष में
न देनेसे शरण देनेवाले, सम्यक्त्व चारित्र रूप बोधिके देनेवाले, श्रुत चारित्र रूप धर्म देनेवाले धर्म के उपदेशक, धर्म के भयक, धर्मरूप रथके सारथी, जैसे पृथिवी पे समस्त राजाओं में चक्रवर्ती प्रधान र है वैसेही धर्म कथन में भगवान् चक्रवर्ती चारों गतिके अंत करनेवाले, जैसे समुद्र में रहे हुवे जीवों को ब. द्वीप आधार भत है वैसेही संसार रूप समुद्र में रहे हुवे प्राणियों को आधार भूत, अप्रतिहत व श्रेष्ट ज्ञान दर्शन के धारक, छमस्थपना से निवर्तनेवाले, रागादि जीतनेवाले, अन्य को धर्मोपदेश कर के रागद्वेष जीतानेवाले, स्वयं संसार समुद्र से तीरनेवाले, अन्य को संसार समुद्र से तीरानेवाले, स्वयंतत्त्वको जाननेनाले, अन्य को तत्त्वका ज्ञान देनेवाले, स्वयं अष्टकर्म से मुक्त होनेवाले व अन्य को मुक्त करानेवाले सर्वज्ञ सर्वदर्शी, सब उपद्रव रहित, अचल, रोगरहित, अनंत, अक्षय, अव्यावाध, अपुनरावर्त
अनंत, अक्षय, अव्यावाध, अपुनरावर्त ऐसीसिद्ध है।
पहिला शतक का पहिला उद्देशा8%
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