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48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी १
पंचविहा अणंतरोववण्णगा कण्हलेस्सा एगिदिया, एवं एएणं अभिलावणं तहेव दुपदो भेदो जाव वणस्सइ काइयत्ति ॥ अणंतरोवषण्णगा कण्हलेस्सा सुहुम पुढवीकाइयाणं भंते ! कइक्रम्मपगडीओ पण्णताओ, एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहिओ अणंतरोव घण्णगाणं उद्देसओ तहेव जाव वेदेति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ २ ॥ कइविहाणं भंते! परंपरोक्वण्णगा कण्हलेस्सा एगिदिया पण्णता ? गोयमा ! पंचविह परंपरोवषण्णगा कण्हलेस्सा एगिदिया प० तंजहा-पुढवीकाइया, एवं एएणं अभिलावेणं चउक्कभेदो
जाव वणस्सइकाइयत्ति ॥ परंपरांववण्णगा कण्हलेस्स अपजत्त सुहुम पुढवीकाइयाणं क्रम से दो भेद वनस्पतिकाया पर्यन्त कहना. अहो भगवन् ! अनंतरोत्पन्ना कृष्ण लेश्यागले मूक्ष्म
धीकाया को कितनी कर्म प्रकृनियों कही? यों इन अभिलाप से औधिक जसे अनंतरोत्पन्नक के उद्देशे जैसे कहना यावत् वदते हैं. ो भावन् ! आपके वचन सत्य हैं ॥ २॥ अहो भगवन् ! परंपरा उत्पन्न कृष्ण लेश्यावाले एकेन्द्रिय कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! पांच परंपरा उत्पन्न कृष्ण लेण्यावाले एकन्द्रिय कहे हैं. यों इभ अभिलाप से वनस्पतिकाया पर्यन्त चार भेद कहना. अहो भगवन् ! परंपरोत्पन्नक कृष्ण लेश्यावाले अपर्याप्त मक्ष्म पृथ्वीकाया को कितनी कर्म प्रकृतियों कही ? यों औधिक
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी.
भावार्थ
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