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श्री अमोलक ऋषिजी 4: अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि
आदिल्लविरहिओ, जे अरूबी अजीवा ते छव्विहा अद्धासमओ णत्थि सेसं तंचेव णिरवसेसं ॥ २ ॥ लोगस्सणं भंते ! दाहिणिल्ले चरमंते किं जीवा एवं चेव, एवं पञ्चच्छिमिल्लेवि, एवं उत्तरिल्लेवि ॥ ३ ॥ लोगस्सणं भंते ! उवरिल्ले चरिमंते किं जीवा पुच्छा ? गोयमा! णो जीवा जीवदेसावि जीवप्पदेसावि जाव अजीवप्पदेसावि ।। जे जीवदेसा ते णियमं एगिदियदेसाय अणिदियदेसाय, अहवा एगिंदिय देसाय अणिदिय देसाय, वेइंदियस्स यदेसे, अहवा एगिदिय देसाय अणिंदिय देसाय, वेइंदियाणय देसा एवं मझिलविरहिओ जाव पंचिंदियाणं ॥ जे जीवप्पदेसा ते णियमं जानना. परंतु विशेषता इतनी कि अनेन्द्रिय का पहिला भांगा का विरह जानना. जो अरूपि अजीव उन के छ भेद. इस में काल नहीं हैं शेष सब वैसे ही कहना ॥ २॥ अहो भगान् ! लोक के दक्षिण चरिमान्त में क्या जीव है ? वगैरह सब पूर्वोक्त जैसे कहना. ऐमे ही पश्चिम व उत्तर का जानना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! लोक के उपर के चरिमांत में क्या जीव है जीव देश है ? वगैरह पृच्छा अहो गौतम ! जीव नहीं है परंतु जीव देश है जीव प्रदेश है यावत् अजीव प्रदेश है. अब जो जीव हैं वे निश्चय ही एकेन्द्रिय के बहुत देश व अनेन्द्रिय के बहुत देश, अथवा एके
. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ