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शब्दार्थ |
सूत्र.
4 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
भावार्थ.
छठ छठ के अ० अंतर राहत दि० दिशा च० चक्रवाल जा० यावत् आ०आतापनालेते प० प्रकृति भद्रक { जा० यावत् वि० विनीत अ० एकदा त तपावरणीय क० कर्म के ख० क्षयोपममसे ई० ईहापोह म० मार्ग गवेषण क० करते वि० विभंग अ० अज्ञान स० उत्पन्न हुवा ते० उस वि० विभंग अज्ञान से स० उत्पन्न हुवा पा० देखे अ० इसलोक में सः सातद्वीप स० सात समुद्र ते ० उससिवा न नहीं जा० जाने न० नहीं पा० देखे त तब त० उस सि० शिवराजर्षि ए० इसरूप अ० चितवना जा० यावत् स० उत्पन्न {हुवा अ० है म० मुझे अ० अतिशेष णा० ज्ञान दं० दर्शन स० उत्पन्न हुवा अ० इस लोक में स० सात दिसाचकवाले जाव आयावेमाणस्स पगइभद्दयाए जाव विणीययाए अण्णयाकयाई तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोह मग्गणगवेसणं करेमाणस्स विभंगे णामं अण्णाणे समुपण्णे | सेणं तेणं विभंग अण्णाणेणं समुप्पण्णेणं पासइ, अस्सि लोए मत्तदीवा सत्तसमुदा तेणं परं न जाणइ न पासइ ॥ तएणं तस्स सिवरसरायरिसिस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुपजित्था, अत्थिणं ममं अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णे, (तापना लेते हुवे प्रकृति भद्रिक यावत् विनितपना से अज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से ईहा पोह करते (हुवे विभंग नामक अज्ञान उत्पन्न हुवा. इस से वह राजर्षि सात द्वीप व सात समुद्र देखने लगा. उस से आगे कुछ जानने व देखने लगा नहीं. फीर उस शिव राजर्षि को ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न हुवा कि मुझे
* प्रकाशक - राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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