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शब्दार्थ
पैगाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 428
ते. उसी भ० भव में सि सीझे जा. यावत् अं० अंत का करे. ॥ १७ ॥ ए. एक म० बडा रस्सी १० पूर्व पश्चिम दु. दोनों तरफ लो० लोकान्त पु० स्पशी हुई पा० देखे छि० : छेदता हुवा छि• छदे छि० छदाइ हुइ अ० स्वतः को म० माने तं० उसी क्षण जा. यावत् अं• अंत करे ॥ १८॥ ए. एक म० बडा कि० कृष्ण सु० सूत्रक जा. यावत् सु० शुक्ल सु० सूत्रक पा० देखे उ० उखेलता हुवा उ०
संबंल्लियमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्खणमेव बज्झइ, तेणेव भवग्गहणेणं जाव अंतं करेइ ।। १७ ॥ इत्थीवा पुरिसेवा सुविणंते एगं महं रज्जु पाईणपईणायतं दुहओ लोगंते पुढे पासमाणे पासइ, छिंदमाणे छिंदइ, छिण्णमिति अप्पाणं मण्णइ. तक्खण मेव जाव अंतं करेइ ॥ १८ ॥ इथवा पुरिसेवा सुविणंते एगै महं किण्हसुत्तगं
जाव सुक्किलसुत्तगं पासमाणे पासइ, उग्गोवेमाणे उग्गोवेइ, उग्गोवेतियमिति अप्पाणं यावत् सब दुःखों का और करे ॥ १७ ॥ कोई स्त्री अथवा पुरुष पूर्व पश्चिम लम्बी, लोक की दोनों बाजी स्पर्शी हुइ एक बड़ी रस्सी को तोडता हुवा तोडे और स्वतः तोडता है ऐसा मान और तरक्षण जागृत होजावे तो उसी भव में सीझे बुझ यावत् अंत करे ॥ १८ ॥ कोई स्त्री अथवा पुरुष कृष्षी यावत् शुक्ल सूब स्वप्न में देखता हुवा देखे यावत् उखेलता हुवा स्वतः को माने और तत्क्षण जागृत होजावे तो उसी भव में।
28+ सोलहवा शतक का छठा उद्देशा
भावा