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शब्दार्थ 4 इ० स्त्री पु० पुरुष स. स्वप्नांत में ए. एक म. बडा ह० अश्वपति ग० गजपति जा. यावत् उ० वृषभ
पति पा० देखते हुवे पा० देखे दु० चढते हुवे दु० चढे इ० ऐसा अ० स्वतःको म० माने त• उस क्षण वु० जाग्रत होवे ते० उस भ० भव में सि० सीझ ना० यावत् अं० अंत करे ॥ १६ ॥ ए. एक म० वडी दा० माला पा० पूर्व पश्चिम दु. दोनोतरफ स० समुद्रको पु० स्पर्शी हुई पा० देखता हुवा पा. सं० लपेटता हुवा सं० लपेटे सं० लपेटी हुइ अ. स्वतः को म० माने त. उसी क्षण वु० जाग्रत होवे
इत्थीवा-पुरिसेवा सुविणते एगं महं हयपतिवा, गयपतिवा, जाव उसभपतिवा पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूढमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्खणमेव बुज्झइ, तेणेव भवग्गहणेणं सिझइ जाव अंतंकरेइ ॥ १६ ॥ इत्थीवा पुरिसेवा सुविणंते एगं महं
दामिणं पाईणपडीणायतं दुहओ समुद्दपुढे पासमाणे पासइ, संवेलेमाणे संवेलेइ, ॥ १५ ॥ कोई स्त्री अथवा पुरुष घोडे कि पंक्ति, हाथि की पंक्ति, यावत् वृषभ की पंक्ति को स्वप्न में देखकर उम पर चढता हवा अपन को माने और तत्क्षण जाग्रत हो जावेतो वह उसी भव में सीझे
अंत करे ॥ १६॥ काई स्त्री अथवा पुरुष समुद्र के पर्व पश्चिम दोनों किनारेतक लम्बी एक बड़ी माला 1 को लपेटता हुवा अपन को माने और उसी क्षण जाग्रत होतो उसी भव में वह स्त्री या पुरुष सीझे, बुझे
42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 22
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजा ज्वालाप्रसादजी*
भावार्थ