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पब्दिार्थ
१०१ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी *
ऐसा व० बोले णो० नहीं अ० मैं गो० गोशाला त० तेरे त० तपतेज से अ० पराभव पाया हुवा ०.
दर छ. छ: मास में जा. यावत् का. काल करुंगा अ० मैं अ० अन्य सो० सोलह वा. वर्ष जिन मु० सुखार्थी वि० विचरुंगा तु• तुम गो• गोशाला अ० स्वतः स० अपने ते तेज से अ० पराभव पाया हुवा अं० अंदर स० सात रात्रि पि० पित्तज्वर प० परिगय स. शरीर पाला जायावत् छ० छमस्थ में का० काल क. करेगा ॥१०८॥ तक तब सा श्रावस्ती ण नगरी में सिं० श्रृंगाटक जा. यावत् । म. महापथ में व० बहुतमनुष्यों अ० परस्पर ए० ऐसा आ० कहते हैं जा० यावत् ए० ऐमा ५० प्ररूपते
गोसाला! तव तवेणं तेएणं अणाइट्टे समाणे अंतो छण्हं मासाणं जाव कालं करिस्सामि॥ ___ अहंणं अण्णाई सोलसवासाइं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि ॥ तुम्हंणं गोसाला अप्पणाचेव ।
सएणं तवेणं तेएणं अणाइटे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगय सरीरे जाव छउ- १ मत्थे चेव कालं करिस्सास ॥ १०८ ॥ तएणं सावत्थीए णयरीए सिंघाडग जाव ।
पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एव माइक्खंइ जाव एवं परूवेइ एवं खलु देवाणुतेरे तपनेज से पराभूत बना हुवा छ मास की अंदर मैं काल नहीं करूंगा, परंतु अन्य सोलह वर्ष पर्यंत जीन व मुखार्थी बना हुवा विचरूंगा. अहो गोशाला! तू तेरे तप तेज से ही पराभव पाया हुवा सात रात्रि में पित्तज्वर सहित छयस्थ अवस्था में काल करेगा ॥१०८॥ उस समय श्रावस्ती नगरी में
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी
भावार्थ
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