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शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ
१९ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
का आंतरा ज० जघन्य खु० शुद्रक भव भव ग्रहण ति० तीन समय ऊणा उ० उत्कृष्ट ते ० तेत्तीस सागरो (पम ठि० स्थिति पर पूर्वकोड स० समयाधिक दे० देशबंध का अंतरा ज० जघन्य ए० एक समय उ० हियाई, देसबंधंतरं जहण्णेणं एकं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरेश्वमाई तिसमयाहियाई एगिंदिय ओरालिय पुच्छा ? गोयमा ! सव्वबंधतरं जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयऊणं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं समयाहियाई, देसबंधंतरं जहणेणं एक्कंसमयं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं ॥ पुढवीकाइयएगिंदिय पुच्छा ? सव्वबंधंतरं जब एगिंदियरस तव भाणियव्वं, देसबंधंतरं जहणणं एक्कंसमयं उक्कोसेणं तिष्णि होवे वहां विग्रह का दो समय अनाहारक होकर तीसरे समय में सर्व बंधक होवे उस में एक समय पूर्व (क्रोड सर्व बंध समय स्थान में मीलावे तव पूर्व क्रोड पर एक समय अधिक होवे इस से सर्व बंध का इतना ( अंतर कहा ) देश बंध का अंतर जघन्य एक समय उत्कृष्ट तीन समय अधिक तेत्तीस सागरोपम. [ देश बंधक मरकर सर्वार्थ सिद्ध में तेत्तीस सागरोपम के आयुष्य से उत्पन्न हुवा, वहां से चवते तीन समय विग्रह गति से उदारिक शरीरी हुवा वहां दूसरे समय में अनाहारक सर्व वैधक हुवा फीर देश बंध किया इस से { इतना अंतर कहा. अहो भगवन् ! एकेन्द्रिय उदारिक शरीर के बंधका कितना अंतर कहा ? अहो मौतम ! सर्व बंध का अंतर जघन्य तीन समय कम क्षक भव ( तीन समय की विग्रह गति से पृथिव्यादि में उत्पन्न
* प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्यालामसादजी *
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