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शब्दाथ
* अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी "
जा. यावत् त तीसरी व० शिखा भि० भेदने से उ. उदार म० मणिरत्न अ० प्राप्त हुवा तं. इस ये हो० होवे प० पर्याप्त ते. इसलिये थे. अपन ९० यह च० चतुर्थ व० शिखा मा० मत भि० तोडो चौथी व शिखा उ० उपसर्ग वाली हो. होवे त० तर ते वेव. वणिक त उस व० वणिक के
२०३८ हि० हित का इच्छक मु० सुख का इच्छक जा० यावत् हि० हित सु. सुख णि. निश्रेय का० इच्छक ए. ऐसा आ० कहने वाला जा. यावत् १० प्ररूपने वाले का ए• इस अ० बात को . नहीं श्रद्धते जा. यावत् अ० नहीं रुचि करते त० उत्सव० वल्मीक की च० चतुर्थ व० शिखा भिं०1 भिण्णाए उराले मणिरयणे अस्सादिए, तं होउ अलाहि पजत्तं ते णे एसा चउत्थी वप्पा मा भिजउ, चउत्थीणं वप्पा सउवसग्गायावि होजा ॥ तएणं ते वणिया तस्त वणियस्स हियकामगस्स सुहकामगरस जाव हियसुहणिस्सेस कामगरस एव माइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स एयमटुं णो सदहति जाव णोरोयंति, एयमढें असद्दह
माणा जाव अरोएमाणा तस्स वम्मीयस्स चउत्थंपि वप्पं भिंदंति । तेणं तत्थ । तीसरा शिखर तोडते श्रेष्ठ मणि रत्न की पाप्ति हुइ, इस से अब संतुष्ट होवो, अपन को मीलना था सो मील
. अब चौथा शिखर मत तोडो क्योंकि वह उपमर्ग करनेवाला होगा. इस.तरह हित, सुख, पथ्य मोक्ष का इच्छक वणिक के कथन में श्रद्धा प्रतीति व रुचि नहीं करते उस वल्मीक का चौथा शिखर भी
*प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ