________________
480
एवं वुच्चइ , एवं जाव वेमाणिया | णबरं सरीर इंदिय जोगा जाणियव्वा जस्स जे अस्थि ॥ ४ ॥ से णूणं भंते ! असखेजेलोए अणंताई दवाइं आगासे भइयव्याई ? हंता गोयमा ! असंखेन्जेलोए जाव भइयवाई ॥ ५ ॥ लोगस्सणं भंते ! एगम्मि आगासपएसे कइदिसिं पोग्गला चिजंति ? गोयमा ! णिव्याघाएणं छदिसि
भावार्थ
488 पंचमाङ्ग विवाह पण्यात्त (भगवती ) सूत्र 48
पच्चीसवा शतक का दूर
कार्माण, श्रोनेन्द्रिय यावत् पशन्द्रिय व श्वासोश्वास बनाते हैं इस से ऐसा कहा गया है. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत चौवीस ही देखक का जानना. परंतु शरीर इन्द्रिय व जोग जिन को जितने होवे उन को उतने
कहना ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! क्या असंख्यात प्रदेशात्मक लोक में अनंत द्रव्य [नीय व परमाणु ] का #समावेश हो सके ? हां गौतम ! असंख्यात. प्रदेशात्मक लोक में अनंस द्रव्य का समावेश हो सके * ॥५॥
अनंत द्रव्य का लोक में अस्थान कहा वह चयउपचय से होता है इसलिये चयउपचय का मन करते हैं. अहो भगवन् ! लोक के एक आकाश प्रदेश में कितनी दिशाओं के पुद्गल चिनाते हैं ? [ एकत्रित होते हैं ]}7 अहो गौतम! निर्व्याघात से छ दिशा के पुद्गल और व्याघात से क्वचित तीन दिशा के अलोक की नजदिक
* जैसे नियत क्षेत्र में एक दीपककी प्रभा के पुद्गल संपूर्ण होने पर भी अन्य दीपर्क की प्रभा के पुद्गलों का समावेश होता है वैसे ही पुद्गल परिणाम की सामर्थ्यता से. असंख्यात प्रदेशात्मक लोक में अनंतं द्रव्य का समावेश होताहै.'