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शब्दार्थ
दक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी >
पास उ आकर भी डरा हुवा भाभय से गघर स्वर भाभगवत् ससरण मे० मुझेत्तिएमो बू० कहता म. मेरे दो० दोनों पा पांव के अं० अंतर में वे० त्वरासे स. पहा ॥ ३० ॥ त० तब त उस स० शक्र दे० देवेन्द्र को ए. इसरूप अ० अध्यसाय जा. यावत् स० उत्पन्न हुवा णो नहीं ख. निश्चय प० शक्ति वत च० चमर अ. असुरेंद्र णो नहीं सु. समर्थ च. चमर अमुरेंट नो० नहीं वि. विषय च. चमर अ० असुरेंद्र का आ० स्वत की णि. नेश्राय से उ० अर्ध्व उ० उडकर जा. यावत् मो० सौधर्म देव
गच्छइत्ता, भीए भयगग्गरसरे भगवं सरणं मेत्ति व्यमाणे ममं दोण्हवि पायाणं अंतरंसि झत्तिवेगेणं समोवडिए ॥ ३० ॥ तएणं तस्स सकस्स देविंदस्स देवरणो इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था णो खलु पभू चमरे असुरिंदे असुरराया णोखलु समत्थे चमरे असुरिंदे अमुगराया, णो खलु विसए चमरस्स असुरिंदस्स
असुररण्णो अपणो णिस्साए उट्ठ उप्पइत्ता जाव सोहम्मेकप्पे. णण्णत्थ अरिहंतेवा, अशोक याण्ड के अशोक वृक्ष नीचे पृथली शिला पट्टपर जहां मैं ध्यानस्थ था वहां वह चमरेन्द्र आया. , आकरवं. डरता हुवा भय घर मे अहो मापन : आपका मुझे शरणो ने बोलना हुवा मेरे दोनों पांवों की बीच में शीध्र वेग मे गिरपडा ॥ ३० ॥ फीर शन्द्र को एमा अध्यवमाय यावत् चिन्नयन हुवा कि स्वयं चमरेद्र यहां आने को ममर्थ नहीं है वैसे ही यकिनी की नाप विना ऊंच मौधर्म देवलोक में
* प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादी *
भावा