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18 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
वीईवयति, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया। अम्हं मडयं समणोवासगं एयमटुं पुष्छित्तएत्ति कटु, अण्णमण्णस्स अंतियं एयमटुं पडिसुणेति २ ता, जेणेव मड्डए समणोवासए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता मंडुयं समणोवासगं एवं वयास्ती-एवं खलु मंडुया ! तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए णायपुत्ते पंचत्थिकाए पण्णवेइ जहा सत्तमसए अण्णउत्थिय उद्देसएजाव से कहमेयं मडुया! एवं?॥तएणं से मंडुए समणोवासए तेअण्णउत्थिए एवं वयासी-जइकजं कज्जइ जाणामो पासामो,अहकजं णकज्जइ णजाणामो
णपासामो ॥ तएणं अण्णउत्थिया मंडुयं समणोवासयं एवं वयासी-केसणं तुमं मडुया! शक ज्ञात पुत्र पांच अस्तिकाया प्ररूपते हैं वगैरह जैसे सातवे शतक में अन्यतीर्थिक उद्देशे में कहा वैसे ही यावत् यह किस तरह है ? तब मंडुक श्रमणोपासक अन्यतीर्थिकों को ऐसा बोले की जैसे धूम्रादिक के. न्याय से आग्नि जानी जाती है वैसे ही धर्मास्तिकायादिक मे जो कार्य किये जाते हैं उन कार्यों से धर्मास्ति कायादिक जानते हैं. और कार्य न करे तो नहीं जानते हैं व नहीं देखते हैं. क्यों कि छमस्थ च अगोचर पदार्थ को कार्य बिना नहीं जान सकते हैं. तब अन्यतीर्थिक उस मंडुक श्रमणोपासक को ऐसा बोले-अहो मंडुक ! तू कैसा श्रमणोपासक है कि यह बात को नहीं जान सकता व नहीं देख सकता है ? सब ।
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी -
भावार्थ