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सूत्र
भावार्थ
48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
ति, जं णो आहारैति तं णो चिजंति चिण्णेवासे उद्दाइ वलिसप्पतिवा ? हंता गोयमा ! तेणं जीवा जमाहारेंति जं नो जाव बलिसप्पतिवा ॥ तेसिणं भंते जीवाणं एवं सण्णातिवा पण्णातिवा मगोइवा, वईतिवा, अम्हेणं आहारमाहारेति ? णो इणट्ठे समट्ठे, आहारैति पुणते ॥ तेसिणं भंते ! जीवाणं एवं सण्णातिवा जाव वईतिवा अम्हेणं इट्ठाट्ठेि फासे पडिसंवेदेमो ? णो इणट्ठे समट्टे, पडिसंवेदेति तेनं भंते! जीवा किं पाणातिवाए उवक्खाइजंति, मुसावाए, अदिण्णा दाणे जाव मिच्छादंसणसल्ले उवक्खा इज्जति ? गोयमा ! पणाइवाएवि उबक्खाइजंति जाव मिच्छा
पुण ते ॥ ७ ॥
करते हैं वह शरीर इन्द्रियादिपने नहीं परिणमता है और परिणमा हुवा मल की तरह विनाशको प्राप्त होता { है. अहो भगवन् ! उन जीवों को ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन व वचन क्या है कि जिससे हम आहार करते हैं. ( ऐसा जाने ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. मात्र वे आहार करते हैं. अहो भगवन् ! उन जीवों को क्या ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन व वचन हैं कि जिस से वे जान सके कि हम इष्ट अनिष्ट स्पर्श वेदते { हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. वे मात्र बेदते हैं ॥ ७ ॥ अब आठवा प्राणातिपातद्वार कहते हैं: - अहो भगवन् ! उन जीवों को प्राणातिपात, मृपावाद, अदत्तादान यांवत् मिथ्या दर्शन शल्य
* प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी
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