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शब्दार्थी १५० कढ़ते वि० विचरते हैं ॥ ६६ ॥ त० तव गो० गोशाला मं० मंखलिपुत्र ब० बहुत मनुष्य की अं०
पास ए. यह अ० अर्थ सो० सुनकर णि अवधार कर आ. क्रोधायमान हुवा जा. यावत् मि० देदीप्य. समान हुवा आ० आतापना भू० भूमि से ५० उतर कर सा० श्रावस्ती ण० नगरी की म० मध्य से
जे. जहां हा. हालाहला कुं० कुंभकारीणी की कुं० कुंभकार की आ० दुकान ते. तहां उ० आकर कुं०१ चिकुंभकारीणी की कुं० कुंभकार की दुकान में आ० आजीविक सं० संघ से सं० घेराया हुवा म०बहुत अ०
समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसदं पगासमाणे विहरइ ॥६५॥ तएणं गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म आसुरत्ते जाव मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुभइ, पच्चोरुभइत्ता सावथि णयार मझं मझेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता
हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि ओजीवियसंघसंपरिवुडे महया अमरिसं प्रलापी नहीं है परंतु अजिन व अजिन प्रलापी है और श्री श्रमण भगवंत महावीर जिन व जिन प्रलापी Be है. ॥ ६६ ॥ बहुत मनुष्यों की पास से ऐसा सुनकर मखली पुत्र गोशाला आसुरक्त हुवा यावत् दांत पीसनेलगा और आतापना भूमि में से आकर श्रावस्ती नगरी की बीच में होता हुवा हालाहला कुंभकारी,
SP पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 28
> पन्नरहवा शतक
भावार्थ
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