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शब्दार्थ | मनुष्यणी ति० तिर्यय ति० तियंचणियों प० परिग्रहीत भ होते हैं ए० ऐसे आ० आसन स० शयन मं० भांडे म० पात्र उ० उपकरण प० परिग्रहीत ए० ऐसे जा० यावत् थ० स्थनित कुमार ॥ १० ॥ ए० एकेन्द्रिय ज० जैसे ने० नारकी ॥ ११ ॥ बे० द्विइन्द्रिय मं० भगवन् वा ० बाह्य मं० भंड म० पात्र उ०
सूत्र
भावार्थ
4888 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र
आसण
मणूस - मणस्त्रीओ - तिरिक्खजोगिया - तिरिक्खजोणिणीओ - परिग्गहियाओ भवंति ॥ सयण भंडमत्तोवगरणा परिग्गहिया भवंति, सचित्ताचित्तमीसयाई दव्वाइं परिग्गहियाइं भवंति से तेणट्टेणं तहेव, एवं जाव थणियकुमारा ॥ १० ॥ एमिंदिया जहा नेरइया ॥ ११ ॥ बेइंदियाणं भंते! किं सारंभा सपरि हातचे जाव सरीरा परिग्गहिया भवंति बाहिरिया भंडमत्तावगरणापरिग्गहिया
सिर्यच, तिर्यचणियों का परिग्रह होता है, वैसे ही आसन, शयन, भंड, पात्र, उपकरण, सचित्त { अचित्त व मीश्र द्रव्य का परिग्रह होता है इसलिये वेसारंभी व सपरिग्रही कहलाते हैं. ॥ १० ॥ एके{न्द्रिय का अधिकार नारकी जैसे कहना ॥ ११ ॥ द्वीन्द्रिय सइिन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय को शरीर, कर्म व बाह्य भंड, पात्र उपकरण वैसे ही सचित्त अचित्त व मीश्र द्रव्यका परिग्रह होता है इसलिये वे सारंभी व सपरिग्रही कहते हैं ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! क्या तिर्यंच पंचेंद्रिय सारंभी सपरिग्रही हैं ? अहो गौतम
पांचवा शतक का सातवा उद्देशा
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