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शब्दार्थ ||
सूत्र
43 अनुवादकालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी
| भजना ॥ ७ ॥ गा० गाथापति को भं० भगवन् भं० किरियाणा जा० यावत् ध० घन अ० नहीं दीया सि० होवे ए इस को ज० जैसे मं० किरियाना उ० दीया हुवा तः तैसे णे० जानना च० चतुर्थ आ० आलापक ६० धन से० उसकी पास उ० लाया हुवा सि० होवे ज० जैसे प० प्रथम आ० आलापक मं० किरियाना अ० नहीं लाया हुवा सि० होवे त० तैसे ने० जानना प० प्रथम च० चतुर्थ का ए० एक ग० (गमा बि० द्वितीय त० तृतीय का ए० एक ॥ ८ ॥ अ० अग्निको भं० भगवन् अ० तत्काल उ० ॥ ७ ॥ गाहावइस्सणं भंते ! भंडं जात्र धणेय से अणुवणीए सिया, एपि जहा भंडे उवणीए तहाणेयव्वं चउत्थो आलावगो, धणेयसे उवणीए सिया जहा पढमो आलावगो भंडेयसे अणुवणीए सिया तहा नेयव्वो पढमं चउत्थाणं एक्को - गमो, बितीय तईयाणं एक्को ॥ ८ ॥ अगणिकाएणं भंते ! अहुणोज्जलिए समा
पणुईभवं
होती हैं ॥ ७ ॥ गाथापतिने किरियाना बेचदिया परंतु ग्राहकने जहांलग उस के पैसे (धन) नहीं दिया भावार्थ है, वहां उस गाथापति को धन व किरियाना ऐसे दोनों क्रिया कम लगती हैं और ग्राहक को {विशेष क्रिया लगती है. जब किरानेका धन उस गाथापति को ग्राहक दे देता हैं तब उसको धन की {क्रिया विशेष लगती है और ग्राहक को धन की क्रिया पतली होती है. यों इस क्रिया प्रथम व चतुर्थ आलापक का सरिखा अर्थ होता है वैसे ही दूसरा व तीसरा आलापक का {अर्थ होता है || ८ || अब अग्नि को प्रज्वालेने के संबंध में प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् !
अधिकार में एक सारखा कोई पुरुष
* प्रकाशक- राजावहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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