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शब्दार्थम०वहत योग्य उ. प्रधान म० मणिरत्न आ० प्राप्त किया. त० तब ते. वे ब० वणिक ह. हृष्ट तुष्ट
भा. भाजन भ० भरे-भ० भरकर प० वाहन भ० भरकर च० चौथीवक्त भी अ० परस्पर एक ऐसा व० बोले ए ऐसे दे देवानुप्रिय अ० हम को इ० इस व० बल्मीक की प० प्रथम व० शिखा भि० तोडने म से उ० प्रधान उ० उदकरत्न अ० प्राप्त हुआ दो०दूसरी व शिवा भि० भेदने से सु मुवर्णरत्न अ० प्राप्त
| २०३६ हुआ तक तीसरी व. शिखा भि० तोडने से उ० उदार म० मगिरत्न अ० प्राप्त हुवा तं• इसलिये
णित्तलं णिकालं महग्धं महत्थं महरिहं उरालं मणिरयणं अस्मादिति ॥ तएणं ते वणिया हट्ठतुट्टा भायणाइं भरेंति, भरेंतित्ता पवहणाइं भरॅति, भरौतित्ता चउत्थंपि अण्णमण्णं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पाए भिण्णाए उराले उदगरयणे अस्सादिए दोचाए बप्पाए भिण्णाए उराले
सुवण्णरयणे अस्सादिए तच्चाए वप्पाए भिण्णाए उराले मणिरयण अस्सादिए त सेयं प्रयोजन वाले व महा प्रधान मणि रत्नकी प्राप्ति हुई. तब वे हर्षित हुये यावत् भाजन व वाहन उाने भरलिग और चौथी वक्त भी परस्पर ऐसा बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! इस वल्मीक का प्रथम शिखर भेदने से
उदक रत्न की प्राप्ति हुई, दूसरा शिखर भेदने से सुवर्ण रत्न की प्राप्ति हुइ, तीसरा शिखर भेदते मणि | रत्न की प्राप्ति हुई तो अब चौथा शिखर तोडते अपन को अच्छे, उत्तम, बहुत मूल्यवाले, अर्थवाले, महेंगे।
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ।
प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ