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शब्दा
. सकल्प ३०
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५० परिणमते हैं
ण
म रणात से० अथ व० वध के लिये हो हो
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Tण नहीं है अ. अचैतन्यकृत क. कर्म आ. कधकारी व वध के लिये हों होते हैं सं० संकल्प व. अवध के लिये हों होते हैं म० मरणांत से० अथ व. वध के लिये हों होते हैं त० तैसे ते वे पो० पुद्गल १५० परिणमते हैं ण नहीं है अ: अचैतन्यकृत क. कर्म ते. इसलिये जा. यावत् क० कर्म क० करते ए. ऐसे णे. नारका को एक ऐसे जा• यावत् वे वैमानिक को ॥ १६ ॥ २॥ *
रा० राजगृह जा० यावत् ए. ऐमा व बोले क० कितनी भं० भगवन् क० कर्म प्रकृतियों प० प्ररूपी है णत्थि अचेयकडा कम्मा ॥ समणाउसो! आयंके से वहाए होंति, संकप्पे सेबहाए । होति, मरणंते से बहाए होति, तहा तहाणं ते पोग्गला परिणमंति, णत्थि अचेयकडा
कम्मा ॥ से तेण?णं जाव कम्मा कजंति ॥ एवं रइयाणवि, एवं जाव वेमाणियाणं ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ जाव विहरइ ॥ सोलसमस्स वितिओ उद्देसो सम्मत्तो॥१६॥२॥
रायगिहे जाव एवं वयासी-कइणं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्ठ भावार्थ जीव को मरणांतिकादि कारण होवे उस प्रकार पुद्गल परिणमे इसलिये अचैतन्य कृत कर्म नहीं. परंतु
चैतन्य कृत कर्म करता है. इसलिये यावत् कर्म करे. यह कथन नरक से लगाकर वैमानिक पर्यंत चौविस दंडक का जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यह सोलहवा. शतक का दूसरा
पूर्ण हुवा ॥ १६ ॥२॥ । दूसरे उद्देशे में कर्म का कथन किया. आगे भी उस का ही विशेष वर्णन करते हैं. राजगृह नगर के
389 सोलहवा शतक का तीसरा उद्देशा
8 पंचमांग विवाह पण्णत्ति
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