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शब्दार्थ *कृत आ० आहारोपचित पो० पुदल बों० शरीरोपचित पो० पुल क. कलेवरोपचित पो० पुद्गल त.
त० तैसे ते० वे पो० पुद्गल प० परिणमते हैं . नहीं हैं अ० अचैतन्यकृत क० कर्म स० श्रमण आ० आयुष्मन् दु० दुःस्थान दु. दुःशैयया दु० खराव स्वाध्याय त तैमे ते. वे पो० पुदल प. परिणमते है
चेयकडाकम्मा कजंति णो अचेयकडाकम्मा कजंति ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव कजंति ? गोयमा! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, वौदिचिया पोग्गला, कडे वरचिया पोग्गला, तहा२णं ते पोग्गला परिणमंति, णत्थि अचेयकडा कम्मा ॥ सम
णाउसो ! दुट्टाणेसु, दुस्सेज्जासु, दुण्णिसीहियासु तहा २ गं ते पोग्गला परिणमंति
अहो गौतम ! जीव चैतन्य कृत कर्म करते हैं परंतु अचैतन्य कृत कर्म नहीं करते हैं. अहो भगवन ! भावार्थ
किस कारन से ऐसा कहा गया है यावत् अचैतन्य कृत कर्म नहीं करते हैं ? अहो गौतम ! जीवों को आहाररूपपने संचित पुद्गल, शरीर रूप पुदल व कलेवर रूप पद्ल उन आहारादिक के लिये परिणमे। इसलिये अचैतन्य कृत कर्म नहीं है. अहो आयुष्यवन्त श्रमणों ! दुष्ट स्थान, दुष्ट शैय्यासन, शीत आतापादि युक्त कायोत्सर्ग में दुःखात्पत्तिरूप हा असातारूप परिणमे इसलिये भी अचैतन्य कृत कर्म नहीं है. अहो आयष्यवन्त श्रमणो ! रादि रोगांतक कष्ट व मरणांतिक कारण रूप होवे, संकल्प विकल्प भी।
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 2
*प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*