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शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ
488+ पंचमांगविवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र +
सं० शक्र दे० देवेन्द्र दे० देवराजा अ अनवद्य भा० भाषा भा० बोले से० अथ ते इसलिये जा यावत् भा० बोले ॥ ९ ॥ स० शक्र दे० देवेन्द्र दे० देवराजा किं क्या भभवनिद्धिक अ० अभवमिद्धिक स | समदृष्टि मिं० मिध्यादृष्टि ए ऐसे ज० जैने मो० मोक उ० उद्देशा स० सनत्कुमार जा० यावत् णो० नहीं अ० अचरिम ॥ १० ॥ जी० जीवों में भगवन् किं० क्या चे० चैतन्यकृत क० कर्म कः करते हैं) अ० अचैतन्यकृत गो० गौतम जी० जीव चे० चैतन्यकृत क० कर्म करते हैं जो नहीं अ० अचैतन्य सइ ताहेणं सक्के देविंदे ॥ ९ ॥ सक्केणं भंते !
देवराया अणवजं भासं भासइ || से तेणद्वेणं जाव भासइ देविंदे देवराया किं भवसिद्धिए अभवसिद्धिए, सम्मद्दिट्ठीए, मिच्छाद्दिट्ठीए एवं जहा मोओसए सणकुमारे जात्र णो अचरिमे ॥ १० ॥ जीवाणं भंते! किं चेयकडाकम्मा कजंति अचेयकडाकम्मा कजंति ? गोयमा ! जीवाणं गौतम ! जब शक्र देवेन्द्र देवराजा मुखपे हस्त या वस्त्रादि लगाये बिना वाले तव जीव रक्षण के अभाव से सावद्य भाषा बोले और जब मुखपे हस्त वस्त्रादि लगाकर बोले तब निरवय भाषा बोले. अहो गौतम ! { इसलिये ऐसा कहा गया है यावत् अनवद्य भाषा बोले || ९ || अहो भगवन् ! शक्र देवेन्द्र क्या भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक समदृष्टि मिध्यादृष्टि वगैरह जैसे मोक उद्देशे में कहा वैसे ही सनत्कुमार यावत् अरिम तक कहना ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! जीव को क्या चैतन्य कृतकर्म है या चैतन्यकृत कर्म है ?
सोलहवा शतक का दूसरा उद्देशा
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