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4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
वेमाणियाणं तिण्णि नाणा तिणि अण्णाणा नियमा । नोपज्जत्तगनोअपजत्तगाणं भंते ! जीवा किण्णाणी अण्णाणी ? जहा सिहा ॥ १४ ॥ निरय भवत्थाणं भंते ! जीवा किण्णाणी अण्णाणी ? जहा निरयगइया ॥ तिरिय भवत्थाणं भंते ! जीवा किण्णाणी अण्णाणी ? तिण्णि णाणा तिण्णि अण्णाणा भयणाए । मणुस्स भवत्था जहा सकाइया ॥ देव भवत्थाणं भंते ! जहा निरयभवत्था. अभवत्था ? जहा सिद्धा ॥ १५ !। भवसिद्धियाणं भंते ! जीवा किण्णाणी अण्णाणी ? जहा सकाइया, दो अज्ञान की नियमा. तिर्यंच पंचेन्द्रिय के अपर्याप्त में भी दो ज्ञान दो अज्ञान की नियमा. मनुष्य के अपर्याप्ता में तीन ज्ञान की भजना तीर्थंकरों को तीन ज्ञान होवे इस अपेक्षा से, और दो अज्ञान की नियमा याणव्यंतर के अपर्याप्त में असंज्ञी उत्पन्न होने से तीन ज्ञान की नियमा, तीन अज्ञान की भजना. ज्योतिषी वैमानिक के अपर्याप्ता में तीन ज्ञान तीनं अज्ञान की नियमा है. नो पर्याप्त नो अपर्याप्त में केवल ज्ञान की नियमा है ॥ १४ ॥ नरक भवस्थ में तीन ज्ञान की नियमा तीन अज्ञान की भजना. तिर्यंच भवस्थ में तीन ज्ञान तीन अज्ञानकी भजना. मनुष्य भवस्थ में पांच ज्ञान तीन अज्ञान की भजना. देव भवस्थ में तीन ज्ञान की नियमा तीन अज्ञान की भजना. अभवस्थ में केवल ज्ञान की नियमा ॥ १.५ ॥ अब मध्यद्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! भवसिद्धिक क्या ज्ञानी है या अज्ञानी है ? अहो गौतम ! भवसिद्धिक ज्ञानी
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवप्सहाय जी ज्वालाप्रसादजी *