________________
शब्दाथाजी जीव स० सत्व सं० संयम से सं० यतना करना अ० इस अ० अर्थ केलिये णो नहीं किं० कि
चित् प० प्रमाद करना ॥ २१ ॥ त० तब से वह खं० खंदक क. कात्यायन गोत्रीय स. श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर का एक ऐसा ध० धर्म उ० उपदेश स० सम्यक् सं० अंगीकार क्रिया त उस आ. आज्ञाको त० जैसे ग. जावे चि० रहे नि बैठे तु. सोवे भुं० भोजनकरे भा० बोले उ० खडाहोवे, पा० प्राणभू भूत जी० जीव स०सत्व सं०संयम मं० यत्नकरे अ०इस अ० अर्थ में णो० नहीं प० प्रमादकरे
संजमेणं संजमियब्वं. अस्सिंचणं अटे णोकिंचि पमाइयव्वं. ॥ २१ ॥ तएणं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स इमं एयारूवं धम्मियं उवएसं सम्मं संपडिवज्जइ,तमाणाए तहगच्छइ,तहचिट्ठइ,तहनिसीयइ,तहतुयदृइ, तह जइ तहभासइ,तहउट्ठा ,
एइ तहपाणेहि भएहिंजीवहिंसत्तहिं संजमेणं संजमेइ, आसिंचणंअटेणोपमायइ ॥ २२ ॥ भावार्थ व यत्नापूर्वक बोलना. ऐसे ही उद्यमवन्त बनकरके प्राणभूत जीव व सत्र से संयम पालना. इस में
किंचिन्मात्र प्रमाद करना नहीं ॥ २१ ॥ तब कात्यायन गोत्रीय खंदकने श्रमण भगवान महावीर का ऐसा धार्मिक उपदेश सुनकर उसे सम्यक् प्रकारसे अंगीकार किया. और उनकी आज्ञामें यत्ना पूर्वक जाना, खडे है
रहना, बैठना, सोना, भोजन करना, बोलना व सावध रहना ऐसे करने लगे. सावध होकर प्राणभूत जीवन | व सत्व की रक्षा कर संयम पालने लगे. इस में किंचिन्मात्र प्रमाद नहीं करने लगे ॥ २२ ॥ तब ईर्या स
4.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 20%
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *