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शब्दार्थ आ० आचार गो० गोचर वि० विनय वे० करता च. चरण क० करण जा० संयम यात्रा मा. मर्यादा:
ध० धर्म आ० कहो त० तब.स. श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर खं० खंदक क० कात्यायन गोत्रीय को स० स्ववाने प. प्रवजा दी जा० यावत् ध० धर्म आ• कहा ए. ऐसा दे० देवानुपिय चि० खडा रहना गं० जाना ए०ऐसे नि बैठना तु सोना भुं भोजन करना भा०बोलना ए ऐसे उउठकर पाल्माण भूलभूत org
मेवआयारगोयरं विणय वेणयिय चरणकरण जाया मायावत्तियं धम्ममाइक्वियं तएणं समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चायणसगोत्तं सयमेव पवावेइ, जाव धम्ममाइक्खाइ एवं देवाणुप्पिया ! चिट्ठियव्वं, गंतव्वं, एवं निसीइयव्वं, एवं तुयट्टियव्वं,
एवं भुंजियव्वं, एवं भासियव्वं, एवं उट्ठाय उट्ठाय पाणेहिं, भूतेहिं, जीवहिं, सत्तेहिं भावार्थ 1. देनेवाला होगा. इसलिये अहो देवानुपिय ! मैं स्वयं मुंडित होने को, आचार क्रिया करने को, सूत्रार्थ 4.
ग्रहण करने को, आचार, गोचर, विनय करने को, चरण, करण संयम की मर्यादा करने को और जैसे आप धर्म कहते हो वैसा अंगीकार करने को वांच्छता हूं. तब श्री श्रमण भगवन्तने दीक्षा दी यावत्
सब जिन धर्म का स्वरूप कहा कि अहो देवानप्रिय खंदक ! युग प्रमाण भूमि देखकर चलना, ऐसे ही निर्गम 1 प्रवेश रूप स्थान देखकर खडे रहना, भुमि पुजकर बैठना, यत्नापूर्वक शयन करना, यत्नापूर्वक भोजन करना
> पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र
दूसरा शतक का पहिला उद्देशा