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शब्दाथ
3अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी
भाजन १० जैसे मा० मत सी• शीत उ. ऊष्ण खु० क्षुधा पि० तृपा चो० चोर बा० सर्प दं.
कवा वात पि० पीत सं० श्लेष्म स० स० सन्निपात वि० विविध रो रोग आ. आ-१ संक प० परिषह उ० उपसर्ग फ० स्पर्श त्ति ऐसा क० करके नि: निकालते पपरलोक काहिक हितकेलिये सु० सुख केलिये ख० क्षमाकेलिये नि० मुक्तिके हेतु अ. अनुगामिक भ० होंगे से. उसको १० इच्छता हूं दे देवानुपिय स. स्वतः ५० प्रबजित मुं० अँडहोकर से शिक्षा ग्रहणकर सि. शिक्षा
समए बहुमए अणुमए भंडकरंगसमाणे माणंसीयं, माणंउण्हं, माणवहा माणंपिवासा, माणंचोरा, मागंबाला, माणंदंसा, माणंममया माणवाइय-पित्तिय-संभिय-साणवाइय. विविहारोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतु त्ति कडु, एस नित्थारियसभाणे परलोयस्स हियाए,सुहाए,खमाए,निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ,तं इच्छामिणं देवाणुप्पिया!
सयमेव पन्चाधियं सयमेव मुंडावियं, सयमेव सेहावियं, सयमेव सिक्खावियं, सय. विश्वास का कर्ता है. आत्मकृत कार्य के सम्मतपने से बहुमत व अनुमत है. आभरण के करंडिये समान है. इसे मैंने शीत, ऊष्ण, क्षुधा, तृपा चोर, मर्प, दंश, मशक, वात, पित्त, कफ, संनिपात आदि मा णान्तिक उपसर्ग व परिषद से बचाया , भादीप्त प्रदीप्त में मेरा आत्मा की मैं रक्षा करूंगा. यह मुझे इस लोक व परलोक में हित, सुख, कल्याण, क्षमा, निस्तार के कर्ता व अनुगामी होगा. वैसे ही मुक्ति है।
*प्रकाशक-राजाबहादूर लाला सुखदेवसहायजी जालाप्रसादजी*
भावार्थ