________________
शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ
पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 800
कोई गा गाथापति आ० गृह में जि० जलते जे० जो त० तहां मं० भंडोपकरण भ० होवे अ० अल्पभार मो० बहुमूल्यवाली तं० उस को ग० ग्रहणकर आ० आत्मा से ए० एकान्त अ० अतिक्रमे ए० यह नि० निकालते प० पीछे पु० पहिले हि० हितके लिये सु० सुख के लिये ख० क्षमाकेलिये नि० मुक्तिकेलिये अ० अनुगामिक भ० होगा ए० ऐमा दे० देवानुप्रिय म० मेरा आ० आत्मा ए० एकभंड इ० इष्ठ कं० कान्त पि० १०० प्रिय म मनोज्ञ म० मनाम धिः धैर्य त्रि विश्वास सं० स्वमत व बहुमत अ० अनुमत में आभरण क आलित्तेनं भंते ! लोए पलित्तेणं भंते ! लोए, आलित्तपलित्तेणं भंते ! लोए जराए मरणेणय से जहा नामए केइ गाहावई आगारंसि झियायमाणांस जे से तत्थ भंडे भव अप्पभारे मोल्लागुरुए तं गहाय आयाए एगंतमतं अवकमइ, एस मे नित्थारिए समाणे पच्छापुराए हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ. एवामेव देवापिया ! मज्झवि आया एगे भंडे इट्ठे कंते पिए मणुण्णे मणामे धिजे विस्सासिए बना हुवा देखकर उस में जो अल्प भार व बहुत मूल्यवाली वस्तु होती हैं उन्हें नीकालता है, और | नीकाल कर एकान्त स्थान में रखता है. और ऐसा विचारता है कि इस अग्नि में से नीकाली हुई वस्तु पीछे से हित, सुख, कल्याण की कर्ता व दारिद्र्य को हरनेवाली होगी. इस प्रकार अहो देवानुप्रिय ! मुझे, | मेरा आत्मारूप एक बहु मूल्य पदार्थ इष्टकारी, प्रियकारी, मनोज्ञ, मन को गमता, धैर्यता, स्थिरता व
दूसरा शतक का पहिला उद्देशा
२९१