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सत्र
अ० अबल अम्वीयरहित अपुरुषात्कार पराक्रम रहित ॥१०॥से वह भ भगवन अ० आत्मा सेउ उपशमोव ग०,
निन्दे सं० संवरे हैं. हां ए यहां ततैने भा०कहना ण विशेष अ० उदे नहीं आया उ० उपशमावे से शेष २0१५० वर्जना ति• तोन जं० जो भं• भगवन् अ० उदे नहीं आया उ० उपशमाये तं० उन को किं० क्या
अपुरिसक्कार परक्कमेणं अणुदिन्नं उदीरणा भावियं कम्मं उदीरंति. एवं सइ आत्थि उट्टाणेइवा, कम्मेइग, बलेइवा, वीरिएइवा, पुरिसक्कार परकमेइवा ॥ १० ॥ सेणणं भंते अप्पणाचेव उवसामेइ, अप्पणाचेव गरहइ, अप्पणाचेव संवरइ ? हंता गोयमा ! एत्थवि तहेव भाणियव्वं, णवरं अणुदिन्नं उवसामेइ, सेसा पडिसेहियव्वा तिष्णि ॥ जं तं भंते! अणुदिन्नं उवसामेइ तंकि उट्ठाणेणं जाव पुरिसक्कार परक्कमेइवा
अनुदित कर्म को उदीरता है ॥ १० ॥ अव कांक्षा मोहनीय का उपशम कहते हैं. अहो भगवन् ! क्या भावार्थ
जीव स्वयं कांक्षा मोहनीय कर्म उपशमावे. गर्थे, व संवरे ! हां गौतम ! जीव स्वयं ही कांक्षा मोहनीय कर्म उपशमावे यावत् संवरे. यहांपर पूर्वोक्त उदीरणा जैसे कहना, परंतु यहां अनुदित कर्म का उपशम करते हैं और शेष तीन को छोडना. जो उदय में आया है वह अश्यही वेदाता है इस लिये अनुदितर कर्म का उपशम कहा है. अहो भगवन् ! जो अनुदित कर्म का उपशम करता है वह क्या उत्थान, कर्म यावत् पराक्रम से करता है या उत्थानादि विना उपशम करता है ? वगैरह अधिकार पहिले जैसे है।
8 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवत्ती ) सूत्र 83>>
***><23 पहिला शतक का तीसरा उद्देशा 800*8037