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शब्दाथा सु. सुपरिनिष्ठित ॥ ३४॥त. तब से वह ब. बहल मा. माहण क० कार्तिक च० चतुर्मास की पाOM
मतिपदा को वि०विपुल म० मधु ध० धृत सं० युक्त प. श्रेष्ट अ० अन्न से मा० ब्राह्मणों को आ० जिमाये त. तब अ० मैं मो० गौतम च. चौथा मा. मास क्षमण पा. पारणे में तं वणकरशाला से प० नीकला कर णा० नालंदा बाहिर म० मध्य से णि नीकलकर जे. जहां को० कोल्लाक सः सनिवेश उ० ऊंच ___ सण्णिवेसे बहुलेणामं माहणे परिवसइ, अद्वे जाव अपरिभए रिउव्वेय जाव सुपरािण
है ट्ठिएयावि होत्था ॥ ३४ ॥ तएणं स बहुले माहणे कत्तियचाउम्मासिय पाडिवयंसि कई विउलेणं महुघयसंजुत्तेण परमण्णणं माहणे आयामेत्था ॥ तएणं अहं गोयमा !
चउत्थमासक्खमणपारणगसि तंतवायसालाओ पडिमिक्खमामि. पडिणिक्खमामित्ता णालंदा बाहिरियं मझमझेणं णिग्गच्छामि णिग्गच्छामित्ता जेणव कोल्लाए सणि.
वेसे उच्चणीय जाव. अडमाणे बहुलस्स माहणस्स गिहं अणुप्पवितु ॥ ३५ ॥ भावार्थ
सब नयों में प्रविण था. ॥ ३४ ॥ उस बहुल ब्राह्मण ने कार्तिक चौमासिकी प्रतिपदा को मधुघृती सहित विपुल परमअन्न [क्षीर ] कर के ब्राह्मणों को जीमाये थे. उस समय मैंभी चौथा मासख का पारणा केलीये तंतुवायशाला में से नीकलकर नालंदा पाडाकी बाहिर मध्यबीच में से नीकला. नीकलकर कोल्लाग सनिवेश में ऊंच नीच मध्यकुल में भीक्षा करते हुये बहुल ब्राह्मणं के घर में प्रवेश किया. ॥ ३५॥
* अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिनी
जाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी.