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शब्दार्थ
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सत्र
48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 42
नी० नीच जा. यावत् अ० फिरते व. बहुल मा ब्राह्मण के गि० गृह में अ० प्रवेश किया ॥ ३० ॥141 त० तब से वह ब० बहुल मा० ब्राह्मण म. मुझे ए० आते त० तैसे जा० यावत् वि० विपुल म. म घ. घृत सं० युक्त प० उत्कृष्ट अन्न से प० देऊंगा त० तष्ट से० शेष ज. जैसे वि० विजय का जा यावत् ब. बहुल. मा० माहण ॥ ३० ॥ त तब से वह गो० गोशाला मं. मंखलि पुत्र म. मुझे तं०१ वणकर शाला में अ० नहीं देखकर रा. राजगृह न० नगर में स० आभ्यंतर बाक बाहिर म. मुझ स०
तएणं से बहुले माहणे ममं एजमाणं तहेब जाव ममं विउलेणं महुघय संजुत्तेणं परमण्णणं पाडेलाभेस्सामीति,तुटे,सेसं जहा विजयस्स जाव बहुले माहणेबहु२ ॥ ३६ ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं तंतुवाय सालाए अपासमाणे रायगिहे णयरे सभितर बाहिरियाए ममं सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ. ममं कत्थवि
सुइंवा खुइंवा पवित्तिवा अलभमाणे जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागउस समय में मुझे आता हुवा देखकर बहुल ब्राह्मण मधु घृत संयुक्त क्षीर मैं देऊंगा ऐसा विचार कर हर्षित हुवा वगैरह शेष सब विजय गाथापति जैसे कहना यावत् बहुल ब्राह्मण को धन्य है ऐसा लोगों में ॐ वार्तालाप होने लगा. ॥ ३६॥ फीर मखली पुत्र गोशाला मुझे तंतवाय शाला में नहीं देखने से राजगह
नगर की आभ्यंतर व बाहिर चारों तरफ मेरा मार्ग की गवेषणा करने लगा परंतु मेरी श्रुति,छींक व प्रवृत्ति
48484248पनरहना शतक 48862