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-: उववजंति, जहण्णेणं एक्कोवा दोबा तिणिवा उक्कोसेणं संखेजा नाइदियोवउत्ता उवव
जंति, मणजोगी ण उववजति, एवं वइजोगीवि, जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा उक्कोसेणं संखेजा कायजोगी उबवजंति, एवं जाव सागारोवउत्तावि, एवं अणागारोवउत्तावि, ॥ ४ ॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावास सयसहस्सेसु संखजवित्थडेसु णरएमु एग समएणं केवइया णेरइया उन्वर्टति, केवइया काउलेस्सा उव्वदृति जाव केवइया अणागारोवउत्ता उव्वदंति ?
गोयमा ! इमीसेणं रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावास सयसहस्सेसु संखेज भावार्थ
संख्याते उत्पन्न होते हैं. मन योगी व वचन योगी उत्पन्न नहीं होते हैं. जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्याते है काय योगी उत्पन्न होते हैं. ऐसे ही साकारोपयोग व अनाकारोपयोग का जानना ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! इस रत्नममा पृथ्वी के तीस लाख नरकाबात में के संख्यात योजन वाले नरकावास में से एक समय।
में कितने नारकी उद्धर्तते हैं कितने कापुत लेश्या वाले उद्वर्तते हैं यावत् कितने अनाकारोपयोग वाले ॐउद्वर्तते हैं ? अहो गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावास में से जो संख्यात योजन के
विस्तार वाले हैं, उन में से जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात नारकी उद्वर्तते हैं, जघन्य एक दो तीन ।।
पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 42
तेरहवा शाक का पहिला उद्देशा