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सुव्वयस्स अरहओ अंतियाओ सहसंबवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्ख मइत्ता जेणेव हत्थिणापुरे णयरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छत्तिा विपुलं असणं पाणं जाव उबक्खडावेइ २ त्ता, मित्तणाइणियग जाव आमंतेइ २ ता तओ पच्छा हाए जहा पूरणे जाव जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेइ, तं मित्तणाइ जाव जे? पुत्तं च आपुच्छइ. आपुच्छइत्ता पुरिससहस्पबाहिणीसीयं दुरूहइ २ त्ता मित्तणाइ णियग जाव परिजणेणं जेटुपुत्तेणय समणुगम्ममाणमग्गे सविड्डीए जाव णादितरवेणं
हत्थिणापुरं णयरं मझमझणं णिग्गच्छइ २ त्ता जेणेव सहसंबवणे उजाणे तेणेव भावार्थ मुनि सुत्रत अरिहंत की पाम से सहस्र वन उद्यान में से नीकलकर हस्तिनापुर में अपने गृह आया. वहां
विपुल अशनादि बनाकर मित्र ज्ञाति जनादिक का आमंत्रणा कर फीर स्नान कर वगैरह अधिकार है
जैसे पूरण तापस का कहा वैसे ही यहां जानना यावत् ज्येष्ट पुत्र को कुटुम्न में स्थापकर ज्येष्ठ पुत्र व Eमिष ज्ञाति को पुछकर सहस्र पुरुष वाहिनी पालखी में बैठकर मित्र शानि, साजन व ज्येष्ट पुष की साथ
जाते सब ऋद्ध सहित यावत वार्दित्र सहित हस्तिनापुर नगर की वीच में से नीकलकर महसवन उद्यानमें न गया. वहां छत्रादि अतिशय देखकर उदायन राजा जैसे यावत स्वयमेव आभरण नीकाल कर स्वयमेव
+१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
प्रक्तशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालामसादजी.