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शब्दार्थ पूर्णभद्र, चे. चैत्य जे० जहां म० श्रण भ० भगवन्त म० महातीर ते तदा उ आकर स० श्रमण
भगवन्त म. महावीर की अ० नजदीक ठि० रहकर स: अषण भ. भगवन्त म. महावीर को ए. ऐम व. बाला ज. जैसे दे० देवानु प्रिय के ब. बहुत अं. अंतेवासी स. श्रमण नि. निय छ० छद्मस्थ भ. होकर छ० छमस्थ अ. अवक्ररण से अ० अवक्रमे णो नहीं अ० मैं त तैसा छ. छद्मस्थ भ. होकर
छ० छमस्थ अ० अपक्रम से अ० अपक्रमा अ० मैं उ० उत्पन्न णा. ज्ञान दं० दर्शन घ० धारक अ० में अरहत जि.जिन के. केवली भ. होकर के. केवली अपक्रमण से अ० नीकला ॥ ८५ ॥ त० तब भ० भगवन्त गो० गौतम ज. जमाली अ. अनगार को ए० ऐसा व० बोले णो० नहीं ज० जगाली के.
भगवं महावीर तेणेव उवागच्छइ २ त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिवा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी जहाणं देवाणुप्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्था भवित्ता छउमत्थावक्कमणेणं अवता, णो खलु अहं तहाचेव छउमत्थे भवित्ता छउमत्थावक्कमणेणं अवकंते, अहं णं उप्पण्णणाणदसणधरे
अरहा जिणे केवली भवित्ता, केवली अवक्कमणणं अवकते ॥ ८५ ॥ तएणं भगवं भावार्थ
निर्ग्रन्थ छप्रस्थ होकर छअस्य अपक्रम से अवक्रम करने वाले हैं वैसा मैं नहीं हूं, परंतु मैं उत्पन्न झान
- "" दर्शन का धारक अरिहंत जिन केवली हूं ॥ ८५ ॥ उस वक्त भगवंत गौतम स्वामी जमाली अनगार को
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋपिजी
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुवदेवसहायनी बालाप्रसादजी*