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शब्दार्थ आर्य अ० अदत्त गि० लेतेहो भुं० भोगवते हो अ० अदत्त सा० आस्वादतेहो त० तब तु० तुम अ० अदत्त
खलु अजो अम्हे अदिण्णं गिण्हामो अदिण्णं भुंजामो अदिण्णं साइजामो; अम्हेणं अजो ! दिण्णं गिण्हामो दिण्णं भुजामो दिण्णं साइजामो तएणं अम्हे दिण्णं गिण्हमाणा दिण्णं भुंजमाणा दिण्णं साइजमाणा तिविहं तिविहेणं संजय विरय पडिहय जहा
सत्तमसए जाव एगत पंडियायावि भवामो ॥ तएणं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते __एवं वयासी-केणं कारणेणं अज्जा ! तुझे दिण्णं गिण्हह जाव दिण्णं साइज्जह, तएणं
तुझे दिण्णं गिण्हमाणा जाव दिण्णं साइंजमाणौ एगंत पंडियायावि भवह ? भाव भोगते हैं, व अदत्त का आस्वाद नहीं करते हैं. परंतु दीया हुआ ग्रहण करते हैं, भोगते हैं व आस्वादते
हैं इस तरह दिया हुआ ग्रहण करते, भोगते व आस्वादते तीन करत तीन योग से संयति, विरति, प्रत्या-a. ख्यान से पापकर्म को नाश करने वाले यावत् एकान्त पंडित होते हैं. अन्यतीर्थिक बोले
कि अहो आर्यो ! किस तरह तुम दिया हुआ ग्रहण करते, भोगते व आस्वादते हो और जिस से संयति - विरति, प्रत्याख्यान से पापकर्म छेदन करने वाले यावत् एकान्त पंडित होते हो फीर स्थविर भगवंतने कहा कि
अहो आर्य ! देते हुवे को दिया कहते हैं क्यों कि क्रिया काल व निष्ठाकाल का अभेद पना रहा हुवाई है, इस से देते हुवे को दिया, लेते हुवे लीया पात्र में डालते हुवे डाला ही कहते हैं. और भी
पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र *38*
आठवा शतक का सातवा उद्देशा-486