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________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अवसर में का० अ० आणपत्रिक स्थान प० सेवकर त० उस को ए० ऐसा भ० होवे स० श्रमणोपासक का काल के काल करके अ० अन्यतर दे० देवलोक में दे० देवपने उ० उत्पन्न भ० होत्रे किं० क्या (दे० देवको णो० नहीं ल० प्राप्त करूंगा ति० ऐसा करके उ० उस ठा० स्थान को अ० विना आलोचकर (१० प्रतिक्रमण कर का० काल करे न० नहीं है त० उस को आ० अराधना त० उस ठा०स्थान को आ आलोचकर प० प्रतिक्रमण कर का० काल करे अ० है त० उस को आ० आराधना से० वह ए० ऐसे पडिसेवित्ता तरसणं एवं भवइ जइ ताव समणोगसयावि कालमासे कालं किच्चा अण्णरे देवा देवत्ताए उबवत्तागे भवंति किं मंगपुण अणवण्णिय देवत्तणंपि णो लभिस्सामित्ति कट्टु, सेणं तस्स ठाणस्स अणालोइय पडिक्कते कालं करेइ नत्थि तरस आराहणा || सेणं तस्स ठाणस्स आलोइय पडिक्कते कालं करेइ, अस्थि तस्स तो आराधक होता है. किसी साधु को अकृत्य स्थान का सेवन किये पीछे ऐसा होवे कि श्रावक भी आयुष्य पूर्ण कर देवता होते हैं तो क्या मैं इन पापों का छिपाने से आणपनिक देवता भी नहीं होलूंगा. अपितु अवश्य{मेत्र होलूंगा. इस तरह आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना कॉल कर जाये तो जिनाशा का आराधक नहीं होता है और आलोचना प्रतिक्रमण करके काल करे तो जिनांज्ञा का आराधक होता है. अहो भगवन् ! ● प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * १४६८
SR No.600259
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages3132
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_bhagwati
File Size50 MB
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