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गवती) मूत्र ₹801
भ० भगवन् ॥ १ ॥२॥ 1राराजगृढ में जा० यावत् ए. ऐसा व बोले आ आत्मऋद्धिवाला भ० भगवन् दे देव च० चार 1 0 पांच दे० देव वा. वासान्तर को वीः व्यतिक्रमता प० पर ऋद्धि से हैं. हां गो० गौतम
ऋद्धि मे त० तैसे जा. यावत् अ० असुर कुमार . विशेष अ० असुर कुमार वा वासांतर से० शेष ० तेते ए. ऐसे ए० इस क• क्रमसे जा० यावत् २० स्थनित कुमार ए. ऐसे वा० वाणव्यन्तर जो०
आराहणा ॥ सेवं भंते भंतेत्ति || दसम सयरस बिईओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ १० ॥२॥ रायगिहे जाव एवं वयासी आइवीएणं भंते ! देवे जाव चत्तारि पंच देवावासंतराई वीइक्कते तेणपरं परिडीए ? हंता गोयमा ! आइवीएणं तंचव जाव एवं असुरकु
मारेवि, णवरं असुरकुमारावासंतराइं, सेसं तंचेव ॥ एवं एएणं कमेणं जाव थणिय भावार्थ आप के वचन सस हैं. यह दशा शतक का दूसरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १० ॥ २ ॥
दूरे उद्देशे के अंत में देवपना कहा. आगे देव स्वरूप कहते हैं. राजगृह नगरी के गुण शील उद्यान में oes श्री श्रपण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! आत्म ऋदिं से देवता चार पांच देवों के आवास उल्लंघकर आगे अन्य की ऋद्धि से क्या जावे ? हां गौनम ! आत्म ऋदि से देव चार पांच देवताके आवास उलंघ सके पीछे अन्य की ऋद्धि से जावे ऐसे ही ।
- पंचमाम विवाह पाणति
दशवा शतक का तीसरा उद्देशा
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