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सूत्र
भावार्थ
अनुवादक - वालाचारी मुनि श्री अमोलक ऋाजी
जाय संजोएत्तारो भवति, एएणं जीवा दक्खा समाणा बहूहिं आयरियवेयावच्चेहिं, उवज्झा यत्रेयाच्चेहि थेरवेयावच्चेहिं तवस्सीवेयावच्चेर्हि, गिलाणचेयावच्चेहिं, सेह वेयावच्चेहिं, कुलत्रेयावच्चेहिं गणत्रेयावच्चेहिं, संघयावबाहें सम्मियवेयावच्चेहिं अत्ताणं संजोए तारो भवति, एएसिणं जीवाणं दक्खत्तं साहू, से तेणद्वेणं तंचेच जाव साहू ॥ १७ ॥ सोईदिय बसणं भंते! जीवे किं बंधइ, एवं जहा कोहवसट्टे तहेव जाव अणुपरियदृइ || एवं चक्खिादयत्रसहेवि, जाव फासिंदियासदेवि जाव अणुपरियहइ ॥ २१ ॥ तणं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगाओ महावीरस्स अंतियं एयमटुं सोचा जिसम्म हट्ट तुट्ठा सेसं जहा देवानंदा तहेव पव्वइए जाव सव्व दुक्खप्प और स्वतः को, अन्यको व उभय को धार्मिक कार्य में जोड़ते हैं और भी उद्यमी जीव आचार्य, उपाध्याय स्थावर, तपस्वी, ग्लानि, नव दीक्षित, कुल, गण, व साधु की वैयावृत्य में आत्मा को जोडनेवाले होते हैं. इन से वे जीवों उद्यमी अच्छे हैं ॥ १८ ॥ अहो भगवन् ! श्रोत्रन्द्रिय में वश होनेवाला जीव क्या बांधता है ? अहो जयंती! जैसे क्रोधका कहा वैसेही सब कहना, और श्रोत्रेन्द्रिय जैसे शेष सब इन्द्रियों का जानना ||१२|| अब जयंती श्रमणोपासका भगवंत श्री महावीर स्वामी की पालघर्म सुनकर हृष्ट तुष्ट हुई वगैरह सब
* प्रकाशक - राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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