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मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
मावार्थ
ते णियमं एगिदियप्पदेसा, अहवा एगिदियप्पएसाय, बेइंदियस्सप्पदेसा; अहवा एगिदियप्पदेसाय बेइंदियाणयप्पएसा एवं आदिल्ल विरहिओ जाव पंचिंदिएसुय, अणिदिएसुय, तियभंगो जे अजीवा ते दुविहा प०० रूबी अजीवाय, अरूवी अजीवाय ॥
रूवी तहेव, जे अरूवी अजीवा ते पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा णोधम्मत्थिकाए, धम्मदेश यहां तक कहना, अब जो जीव के प्रदेश हैं वे नियमा से एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं यह असंयोगी एक
अथवा बहुत एकेन्द्रिय प्रदेश एक बेइन्द्रिय बहुत प्रदेश यो दशवे शतक के प्रथम उद्देशे जैसे तीन भांगे में से प्रथम भांगा बहुत एकेन्द्रिय के बहुत प्रदेश एक बेइन्द्रिय का एक प्रदेश यह भांगा छोडकर सब कहना यावत् अनेन्द्रिय को पहिले कहे हुवे तीनों भांगे कहना. यह जीव संबंधी व्याख्या कही. अब अजीव संबंधी व्याख्या कहते हैं. जो अघो लोक के आकाश पर अजीव है उम के दो भेद १ रूपी अजीव और दूसरा अरूपी अजीव. रूपी अजीव के चार भेद १ स्कंध, २ देश ३ प्रदेश व ४ परमाणु.. और अरूपी अजीव के पांच भेद हैं एक आकाश प्रदेश होने से धर्मास्तिकाय संपूर्ण नहीं है क्यों कि धर्मास्तिकाय संपूर्ण लोक व्यापी है एक आकाश प्रदेश में धर्मास्तिकाय का प्रदेश होता है परंतु देश शब्द ल से धर्मास्तिकाया का अवग्रहण करना. यह अवयव मात्र का विवक्षितपना होने से अपेक्षित वचन से
धर्मास्तिकाया का देश कहा है. और धर्मास्तिकाया का प्रदेश तो निरुपचरित है इस से धर्मास्तिकाय के
*.प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*