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शब्दार्थ
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अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
आ. कहते हैं अ० मैं पु० फीर गो० गातम ऐ० ऐसा आ० कहता हूं जा० यावत् प० प्ररूपता हूं. प. ऐसा खः खलु म. मैंने च० चार पु० पुरुष जात प० प्ररूपी सी० शील संपन ए. एक नो० नहीं सु० श्रुतसंपन्न सु. श्रुतसंपन्न ए. एक नो० नहीं सी० शीलसंपन्न ए. एक सी० सीलसंपनी सु० श्रुतसंपन्न ए० एक नो० नहीं सी० शीलसंपन्न नो० नहीं सु० श्रुतसंपन्न त• तहां जे० जो ५० प्रथम
जाया पण्णत्ता, तंजहा सील संपण्णे नामं एगे नो सुयसंपण्णे, सुयसंपण्णे नामं एगे
नो सीलसंपण्णे, एगे सीलसंपण्णेवि, सुयसंपण्णेवि, एगे नो सीलसंपण्णे नो सुय । , संपण्णे ॥.१ तत्थणं जे से पढमे पुरिस जाए सेणं पुरिसे सीलवं असुयवं उवरए क्रिया से कुच्छ नहीं होता है ज्ञान रहित क्रिया निष्फल है. पढमं नाणं तओ दया । एवं चिट्ठइ सव्व संजए ॥ अण्णाणी किं काही । किं वा नाही य छेय पावगं ॥१॥ अर्थात् प्रथम ज्ञान होता है तब दया का पालन कर सकता है, अज्ञानी जाने विना कुछ नहीं कर सकता है इस से श्रुत ज्ञान ही श्रेय अहो भगवन् ! यह किस तरह है ? अहो गौतम ! जो अन्य तीथिक ऐसा कहते हैं वे मिथ्या ऐसा कहते हैं. अहो गौतम ! इस कथन को मैं इस प्रकार कहता हूं यावत् प्ररूपता हूं कि श्रुत युक्त शील श्रेय है अर्थात् ज्ञान सहित क्रिया वांच्छितार्थ हो सकती है. यथा सयोग सिद्धीए फलं वयंति । नहु एक चक्केग रहो पया: ॥ अंधोय पंगूयवणे समिच्चा । ते संपत्ता नगरं पविकृति ॥ १ ॥ जैसे एक चक्र से रथ
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ
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