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शब्द
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| रा. राजगृह में जा यावत् ए. ऐसा व बोले अ० अन्यतीर्थिक भं भगवन् ए. ऐसे आ. कहते हैं।
जायावत् प० प्ररूपते हैं ए० ऐसे खनिश्चय सी० शील से० श्रेय मु श्रुत से श्रय सी०शील से श्रेय
से वह क० कैसे ए० यह भं० भगवन् ए. ऐसे गो० गौतम ज. जो ते वे अ० अन्यतीर्थिक ए. ऐसा Ee आ० कहते हैं जा० यावत् जे. जो ते० वे ए. ऐसा आ० कहते हैं मि० मिथ्या ते वे ए. ऐसा १० E एवं खलु सीलं सेयं, सुयंसेयं सुयं सील सेयं, से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा !
जण्णंते अण्णउत्थिया एव माइक्खंति जाव जे ते एव माहंसु मिच्छा ते एव माहंसु
अहं पुण गोयमा ! एव माइक्खामि जाव परूवेमि, एवं खलु मए चत्तारि पुरिस । गौतम स्वामी वंदना नमस्कार कर पूछने लगे कि अहो भगवन ! अन्यतीथिक ऐमा कहते यावत् प्ररूपते । हैं कि ज्ञान से कुच्छ प्रयोजन नहीं है केवल क्रिया से ही मुक्ति मीलती है 'जहा खरो चंदण भारवाही। भारस्स भागी न हु चंदणस्स ॥ एवं खु नाणी चरणेणही णो । णाणस्त भागी न हु सुग्गईए' ॥१॥ अर्थात् जैसे चंदन का भार वहन करनेवाला रासभ को चंदन भाग्भत होता परंत उस चंदन के गनों की प्राप्ति उस को नहीं होती है ऐसे ही चारित्र से हीन पुरुष केवल ज्ञान का भार वहन करनेवाला होता है । परंतु सुगति नहीं प्राप्त कर सकता है. इस से मुक्ति में साधनभूत मात्र शील है वही श्रेय व श्लाघनीय है. ३०० और कितनेक ऐसा भी कहते हैं कि श्रुत श्रेय है क्योंकि ज्ञान से वांच्छितार्थ की सिद्धि होती है परंतु
विवाह पण्यत्ति ( भवाती ) सूत्र
आठवां शतकका दशवा उद्देशा 89480