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शब्पार्थ आर्य तु० तुम के० कोई गो० गोशाला मं० मखलीपुत्र ध धार्मिक व निंदा से ५० निंदो जा. यावत् ।
मि० मिथ्या वि० अंगीकार किया ॥ ८६ ॥ जा. जितने में आ० आनंद थे. स्थविर गो० गौतमादि स०
श्रमण णिनिग्रन्थों को ए०ऐसी अबात प-कही ता०इतनेमें से वह मं०मखलीपुत्र गोगोशाला हा०हाला #हला कुं. कुंभकारिणी के कुं० कुंभकार की दुकान में से प० नीकलकर आ० अजीविकसंघ से 4 प० परवरा हुवा अ० अपर्ष वहता हुवा सि० शीघ्र तु० त्वरित जा० यावत् सा० श्रावस्ती ण नगरी
जाव मिच्छं विप्पडिवण्णे ॥ ८६ ॥ जावचणं आणंदे थेरे गोयमाईणं समणाणं णिग्गंथाणं एयमटुं परिकहेहि तावंचणं से गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता आजीवियसंघसंपरिवुडे महया अमरिसं वहमाणे सिग्धं तुरियं जाव सावत्थि णयरिं मज्झमझणं णिग्गन्छई,
णिग्गच्छइत्ता जेणेव कोट्ठए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, भावार्थ निग्रंथ की साथ अनार्यपना अंगीकार किया है, इससे कोई उस के मत की निंदा, चोयणा करना नहीं ॥८६॥
गौतमादि श्रमण निग्रंथ को आनंद स्थविर ऐसा कहते थे इतने में ही मंखलीपुत्र गोशाला हालाहला किंभकारिणी की दकान में से नीकला और अपने आजीविक पंथ के संघ से परवराहवा महा अमर्ष, १ [ ईर्षा ] माहित शीघ्र त्वरित यावत् श्रावस्ती नगरी की बीच में होता हुवा कोष्टक उद्यान में श्री श्रमण ।
पंचमांग विवाह पस्णत्ति ( भगवती) सूत्र 38
पन्नरहवा शतक2 803800